Friday 30 August 2013

मेरे गांव का वो किसान

जाने कितना स्वेद रिसा ?
बेमोल बिका , बेमौत मरा !
धरती की छाती से छनकर
पातालों तक व्यर्थ बहा 

निष्ठुर बादल का भी दिल
कतरा भर नही पसीजा करता
चीमड़ चमड़ी दरिया पिघले
पर वो दो आंसू ना रोता

दौलत का बेशर्म प्रभंजन
नाड़ी नाड़ी चाट चला
मज्जा सोख गयी खुद हड्डी
अन्तड़ियों ने धैर्य छला

फिर भी ऊसर बन्जर मे
बैलों से ज्यादा खपता है
उसके तन का काला कन्चन
सौ सौ सूरज छलता है

फिर भी नमक लगी रोटी वो
छप्पन भोग सा खाता है
मेरे गांव का वो किसान
नित भारत-वर्ष बनाता है

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