Monday 25 August 2014

टैटू

इस सरहद पर किसने खींची, मेरे यार लकीरें
अच्छे-भले मुल्क की लिख दी, किसने ये तक़दीरें
सूनी अच्छी थी मिट्टी की कोरी सुर्ख हथेली
कैसे बूझेगी अब दुनिया इसपर लिखी पहेली
"टैटू" जैसे गुदवा दी हैं, कैसे इन्हें मिटाऊँ
किसके खून से धुलकर इसके जिद्दी दाग छुड़ाऊँ
सदियों-सदियों सहनी होगी इनपे जमी ख़राशें
बड़ा बुरा है मर्ज़ सियासत, कैसे दवा तलाशें

Saturday 23 August 2014

ध्यान से देखो...तुम सी लगती है

वो गौरैया देख रही हो?
जो बारिश में भीग कर
रुई का गुल्ला हो गई है
और अपनी चोंच से
अपने पंखों को 
कंघी कर रही है

ध्यान से देखो
तुम सी लगती है

वो लाल रिबन बाँध कर
स्कूल जाती हुए लडकी
जो माँ से चोटी पर
गुडहल के चार फूल बनवाकर
चलती कम,
मटकती जादा है

ध्यान से देखो
तुम सी लगती है

वो पहेली याद है तुमको?
"हरी थी..मन-भरी थी.."
जिसका ज़वाब 'भुट्टा' था...
उसमें, वो सुनहरी सी लडकी,
जो, राजा जी के बाग़ में
दुशाला ओढ़े खड़ी थी

ध्यान से देखो
तुम सी लगती है

ये पुरानी फोटो भी देखो न,
जिसमे मेरी माँ
बीस बरस की है,
और कॉलेज बंक मारकर
पहली ब्लैक-एंड-व्हाईट फोटो खिचवाने
कितना सज-धज के
स्टूडियो में आई है

ध्यान से देखो
तुम सी लगती है

और ये ढाई साल की बच्ची
जो सोती है, तो
आँखे मिचकाती है
मुह बिचकाती है
और गहरी नींद में
चूस-चूस कर
अपना अंगूठा पिचकाती है

ध्यान से देखो
तुम सी लगती है

ये रात
चाँदनी
ख़ामोशी
सुबह
रौशनी
ज़िंदगी

जो भी मैं
देख पा रहा हूँ

ध्यान से देखो
तुम सी लगती है

Wednesday 20 August 2014

यहीं हैं, बहुत दूर नहीं

यहीं हैं, बहुत दूर नहीं

वहाँ, जहाँ
स्कूल की घंटी बजी है
और प्राइमरी के बच्चे
मास्टर जी के वेस्पा स्कूटर से तेज
बिना क्लच-गियर-एक्सीलेरेटर
बेहिसाब दौड़ पड़े हैं
चूरन-बेर वाली बुढ़िया के ठेले की और

हीं हैं, बहुत दूर नहीं

वहाँ, जहाँ
पार्क की बेज़ान बेंच पर
चौकीदार से नज़र बचा कर
गोधन ने कनेली को
पहला कुंवारा चुम्बन दिया है
और कनेली के साथ-साथ
पार्क की बेंच भी जी उठी है

यहीं हैं, बहुत दूर नहीं

वहाँ, जहाँ
इन्द्रधनुष निकला है
और एक छोटे से बच्चे ने
अपनी एड़ी पर उचक कर
बादल के गुमनाम टुकड़े में
रुई के बालों के बीचों-बीच
सतरंगी "हेयरबैंड" ख़ोज निकाला है
और जी भर कर ताली बजाई है

यहीं हैं, बहुत दूर नहीं

वहाँ, जहाँ
काई के गुच्छे में फंसी
कागज़ की एक सीली सी नाव
पत्थर की ठोकर से उठी
लहर के धक्के से
बारिश में वापस तैर पड़ी है
रूठे से राजू के दरवाज़े की ओर

यहीं हैं, बहुत दूर नहीं

वहाँ, जहाँ
कल रात बिस्तर पर
पहली बार सलवटें पड़ीं
और उनकी क्रीज़ की गहराई में
पाज़ेब, बुंदे, लाज,
लत्ते-कपड़े-राज़, और
न जाने क्या-क्या हिरा गया

यहीं हैं, बहुत दूर नहीं

ज़िंदगी,
और उसके
निशाँ
यहीं हैं,
बहुत दूर नहीं

Monday 18 August 2014

"वन-टू-हंड्रेड"

वो बच्ची हर रात
"वन-टू-हंड्रेड" 
तारे गिनती है
क्योंकि बाबा ने
उसकी उँगलियों के पोरों पर
सौ के आगे के "नंबर"
अभी तक सजाए नहीं हैं

वो रोज़ चाँद को भी गिनती है
जबकि आसमान में
ले-दे-कर बस एक ही
बोरिंग सा चाँद है

उसका अंगूठा
टब्बक-टब्बक, उछल-उछल
उँगलियों के पोरों पर
दौड़ता है तो, ये तारे
टिम-टिमा कर
"प्रेजेंट मैम" कहकर
अपनी हाज़िरी दर्ज़ करा देते हैं

मुझे फ़िक्र है कि
कि कल को वो बच्ची
बड़ी हो जाएगी
और "हंड्रेड" से आगे की
ख़तरनाक सी गिनती
स्कूल से या क़िताबों से
सीख आएगी

और तब, जब उसे
गिनने के लिए
अंगूठे से उँगलियों के पोरों को
छूने की ज़रूरत भी न होगी

उस दिन ये खेल
बोरिंग होकर
छत पर
लावारिस ही छूट जाएगा

और "मैम" को खोजता
"प्रेजेंट" सा वो तारा
बावला सा, हैरान सा
बालकनी के किसी कोने में
"एब्सेंट" ही टूट जाएगा