टूट कर किए गए प्यार की।
एक टुकड़ा कैफ़ियत
ये निखिल सचान का रफ़ रजिस्टर है....इसमें उस वक़्त की कविताएँ हैं, जब मुझे लिखने का ख़ास सलीका नहीं था और आज की बातें है, जब आज भी मैं सलीका सीख ही रहा हूँ ! काश ता-उम्र सीखता रहूँ और इसी शौक़ में ज़िंदगी गुज़र जाए
Wednesday, 10 December 2025
मछलियाँ
Tuesday, 7 March 2023
त्रासदी
वैसे तो दुनिया मे तमाम त्रासदियाँ हुईं
न जाने कितनी ही स्पीशीज़ लुप्त हो गईं
कितने ही युद्ध लड़े गए
मुगल, मंगोल आए, और सब कछ रौंद कर चले भी गए
लेकिन मेरे जीवन में सबसे बड़ी त्रासदी तब हुई,
जब मुझे इल्म हुआ कि मैं और तुम सयाने हो गए !!
जब हमने ये जान लिया कि किताबों मे दबाकर रखे गए
गौरैया के टूटे, लंगड़े पंखों से
एक दिन नई गौरैया नही निकल आती
जब हमने जाना कि आँख से टूटी पलक की काली कतरन
हथेली पर रखके, छाती भरकर, फूक देने से
हम तुम हमेशा के लिए एक दूसरे के नही हो जाएँगे
हमने जाना कि भूख इंसान से पहले
उसके भीतर प्यार का एक एक कतरा मार देती है
इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि एक दिन तुम सयानी हो गई
और तुम्हारी देखा देखी, मैं भी हो गया सयाना
हमें जादू-वादू बेमानी लगने लगा
और हम सपने देखने से पहली, हर बार कहने लगे -
"ऐसा सचमुच मे कहाँ होता है यार"
एक वक्त था जब तुम रोज़ाना, शिमला भाग कर
वहां किसी खाई में बस जाने का मास्टर प्लान बनाती थी
और मैं उसके लिए जोड़ता था पचास के सीले हुए नोट
जब मैं रात-रात जाग कर लिखता था तुम्हारे लिए कविताएं
और एक छोटा सा कमरा, हमें चार बेडरूम किचेन के
आलीशान घरों से कई गुना बड़ा लगता था
जब सी-व्यू-अपार्टमेंट, न तुम्हे चाहिए था न और मुझे
क्योंकि मेरे घर में थी, तुम्हारे आँखों की समूची डल झील
और तुम्हारे पास था मेरी बाहों भर नीला आकाश
इतिहास की किताबों मे जब इतिहासकार
दर्ज़ कर रहे होंगे सभी त्रासदियाँ
क्या कोई दर्ज़ करेगा हमारे सयाने हो जाने की त्रासदी?
क्या किसी किताब में खून से लिखेंगे ये इतिहासकार?
कि एक तूफ़ान से भी तेज बहने वाली ज़िद्दी लड़की
सिमटकर बंद हो गई, समझदारी की बौनी डिबिया मे
और दुनिया को जूते की नोक पर रखने वाला बेखौफ़ लड़का
'यस सर - यस सर' करके, बाकी की ज़िंदगी
मिमियाता रहा काँच के खौफनाक दफ्तर में !!
Sunday, 4 October 2020
दलितों की लडकियां
वो इतनी अछूत हैं कि कुआँ छू दें तो गाँव
कुएँ का पानी नहीं पीता
वो कुएँ से दूर खड़ी, मुह में आँचल दाबे
इंतज़ार करती रहती हैं
कि ऊंची जात वाले पानी भर ले जाएँ
और उनका पानी पवित्र बना रहे
वो इतनी अछूत हैं
लेकिन इतनी भी नहीं कि ऊँची जात वाले
उनके गले में दांत गड़ाकर
उनका बलात्कार न कर पाएं
वो इतनी अछूत हैं कि उनकी चिता को
उनके परिवार वाले भी छू न पाए
वो इतनी अछूत हैं कि उनके शव को
उनकी माँ आखिरी बार देख भी न पाई
वो जलती रहीं रात के अँधेरे में
और सूरज की रौशनी भी छू न पाई
उनकी चिता को
वो इतनी अछूत हैं
लेकिन इतनी भी नहीं कि ऊँची जात वालों ने
उन्हें छूने की तलब में
उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ डाली
वो इतनी अछूत हैं कि उनके गाँव में
कोई नहीं घुस सकता
न मीडिया, न कैमरा, न सत्ता
न बिना इजाज़त हवा, न पत्ता
वो इतनी अछूत हैं उनका गाँव
किले में बदल दिया गया है
और पूरी दुनिया से दिया गया है काट
वो इतनी अछूत हैं
लेकिन इतनी भी नहीं कि ऊँची जात वाले
उनकी जबान काट देते हैं
वो इतनी अछूत हैं कि हमारे शहर
आज तक उनके गाँव नहीं पहुंचे
न ही पहुँची सड़क और बिजली
न ही पहुंचा विकास उनके पास
न आँख पर पट्टी वाला कानून
साथ में डेमोक्रेसी लेकर
वो इतनी अछूत हैं
लेकिन इतनी भी नहीं कि भारत में
हर दिन दस दलित लड़कियों का
बलात्कार न हो सके
वो दलितों की लडकियां
यहाँ इतनी अछूत हैं
कि अपनी कटी जबान और टूटी रीढ़ की हड्डी लेकर
वो चली गईं हैं, ना उम्मीद,
सब छोड़ कर
अपना गाँव, अपना दुआर
अपना बाबुल, अपने खेत
अपनी सहेलियां, अपनी गुड़ियाँ
अपने त्यौहार, अपने झूले
अपना देश, अपना संविधान
छोड़कर, वहाँ,
जहाँ कोई उनसे
नहीं पूछेगा उनकी जात
और नहीं पूछेगा कि वो क्या लगाती हैं
अपने नाम के आगे
उन्हें स्वर्ग नहीं भोगना है
उन्हें वो नर्क भी चलेगा
जहाँ के कुँए से सब साथ पानी भर सकें
Sunday, 22 December 2019
मुसलमानों का मोहल्ला
कौमी एकता की बातें
बस कहने में अच्छी लगती हैं.
कहता था, कि तुम कभी
मुसलमानों के मोहल्ले में
अकेले गए हो ?
कभी जाकर देखो. डर लगता है.
हालांकि उसे शाहरुख़ खान बहुत पसंद था
उसके गालों में घुलता डिम्पल
और उसकी दीवाली की रिलीज़ हुई फ़िल्में भी
दिलीप कुमार यूसुफ़ है, वो नहीं जानता था
उसकी फिल्में भी वो शिद्दत से देखता था
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
और सलमान की ईदी का
गर जो ब्लैक में भी टिकट मिले
तो सीटियाँ मार कर देख आता था
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
विज्ञान में उसकी दिलचस्पी इतनी कि
कहता था कि अब्दुल कलाम की तरह
मैं एक वैज्ञानिक बनना चाहता हूँ
और देश का मान बढ़ाना चाहता हूँ
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
ख़ासकर मोहोम्मद अज़हरुद्दीन की कलाई का
ज़हीर खान और इरफ़ान पठान की लहराती हुए गेंदों का
कहता था कि ये तीनों जादूगर हैं
ये खेल जाएं तो हम हारें कभी न
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
उन्हें वो ब्लैक एंड व्हाईट में देखना चाहता था
वो मुरीद था वहीदा रहमान की मुस्कान का
और परवीन बाबी की आशनाई का
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
कहत था कि ख़ुदा बसता है रफ़ी साहब के गले में
वो रफ़ी का नाम कान पर हाथ लगाकर ही लेता था
और नाम के आगे हमेशा लगाता था साहब
अगर वो साहिर के लिखे गाने गा दें
तो ख़ुशी से रो लेने का मन करता था उसका
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
सारे जहाँ से अच्छा गाता था
कहता था कि अगर
गीत पर बिस्मिल्ला खान की शहनाई हो
और ज़ाकिर हुसैन का तबला
तो क्या ही कहने !
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
ग़ालिब की ग़ज़ल कहता
फैज़ के चंद शेर भेजता
उन्ही उधार के उर्दू शेरों पर पर मिटी उसकी महबूबा
जो आज उसकी पत्नी है
वो इन सब शायरों से नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
बड़ा भोला भी
वो अनजाने ही हर मुसलमान से
करता था इतना प्यार
मुसलमानों से डरता था
वो मुसलमानों के देश में रहता था
ख़ुशी ख़ुशी, मोहोब्बत से
और मुसलमानों के न जाने कौन से मोहल्ले में
अकेले जाने से डरता था
वो भगवान् के बनाए मुसलमानों से नहीं डरता था
शायद वो डरता था, तो
सियासत, अख़बार और चुनाव के बनाए
उन काल्पनिक मुसलमानों से
जो कल्पना में तो बड़े डरावने थे
लेकिन असलियत में ईद की सेंवईयों से जादा मीठे थे
Thursday, 19 December 2019
केलाइडोस्कोप
और उनकी लाठियों के संगीत में
लय मिलाकर जन-गण-मन का गीत गाना
तुम रंगीन कंचे भरकर, उनकी तोपों को
सुन्दर केलाइडोस्कोप बना देना
कि उसमे वो ख़ुद झांकें तो उन्हें
बारूद की जगह प्रेम के हज़ार रंग दिखें
देखना ! जो तुम मुस्कुरा कर
कस कर गले लगाओगे
तो वो भी, वर्दी उतारकर
बुद्ध हो जाएँगे
Tuesday, 10 December 2019
घृणा और प्रेम
प्रेम करते, मुस्कुराते
सबको बाहों में भरते, चूमते
किलकारी मार कर दौड़ते
आकर किसी की भी गोद में बैठ जाते
और उसकी छोटी ऊँगली पकड़ कर
किसी के साथ भी चल देते, मुस्कुराते
वो ऊँगली का रंग नहीं देखते थे
न ही पूछते थे ऊँगली की जात और मज़हब
क्योंकि उन्हें उंगली की ऊष्मा पसंद थी
और पसंद था उनकी मुट्ठी में एक अदद ऊँगली का होना
वो बच्चे सब कुछ करते थे
बस किसी से घृणा नहीं करते थे
क्योंकि कोई भी बच्चा
जन्म से घृणा करना नहीं सीखता
वो जन्मता है बस प्रेम के साथ
प्रेम एक जन्मजात गुण है
और घृणा मानव निर्मित है
घृणा हम यहीं सीखते हैं
और यहीं छोड़ कर चले भी जाते हैं
क्योंकि उसका भार
चार अदद कंधे और पूरा मोहल्ला मिललकर भी
अर्थी पर नहीं उठा पाता
जब हम मरते हैं तो घृणा से हमारी भौहें तनी नहीं होतीं
हमारे माथे पर क्रोध के बल की रेखाएं नहीं होतीं
हमारे आँखें गुस्से से लाल नहीं होतीं
जब हम मरते हैं
तो बस हमारी मुट्ठी बंध जाती है
उसी छोटी ऊँगली की उष्मा की आस में
हम घृणा यहीं छोड़ कर
चले जाते हैं बौद्ध होकर
एक शांत, सौम्य, प्रेम में पड़ा चेहरा लेकर
वहां,
जहाँ से हमें भेजा गया था,
प्रेम करने. हंसने. खिलखिलाने.
Saturday, 2 December 2017
कॉकरोच और प्रेम पे पड़े लोग
औंधे मुह पलट देना
और उन्हें बिलबिलाते देखना
बड़ा सुकून देता है
देखकर
कि प्रेम में पड़े लोगों जितना
बेबस जानवर
कोई और भी होता है
प्रेम पे पड़े लोग
कभी नहीं मरते
वो सह जाते हैं
बड़े से बड़ा नयूक्लियर अटैक
और उम्मीद की अफ़ीम खाकर
जी जाते हैं, जैसे तैसे, ये ज़िंदगी
बिलबिलाते
कुलबुलाते
तिलमिलाते
छटपटाते
Tuesday, 20 June 2017
Friday, 16 June 2017
तुम आ जाओ
कि जैसे छुट्टी की घंटी बजे
और बच्चें ख़ुशी से भागते आएं
मटकते, खिलिखाते, किलकिलाते, उतराते
पैंट की बद्धी, बुस्शर्ट, बस्ता संभाले
स्कूल की हज़ार गप्पी बात लिए,
माँ के गले लग जाएं
कि जैसे सालों की देरी के बाद
अदालत का फ़ैसला आए
और किसी सूदखोर से लड़-झगड़कर
एक बेचारे सच्चे आदमी को
जनम भर की फँसी हुई पूँजी, ज़मीन
असल और सूद के साथ मिल जाए
कि जैसे पहाड़ों में सीना फुलाकर
कोई महबूब का नाम चिल्लाए
उसकी आवाज़ गूंज कर लौट आए
और सब ओर से उस पर बे-इन्तहा बरसे
बिखरे, टूटे, छिटके, चिपटे
और उससे कस के लिपट जाए
कि जैसे आँगन में बिन-पूछे-बुलाए
खोई हुई गौरैया चली आए
अपनी चोंच से गर्दन काढ़े, तिनका खाए,
साँस भरे और ऊन का गुल्ला हो जाए
बुद्धू जैसी घंटों घूरे
चूं-चूं कर के बोले-बताए
कि जैसे किसी को बे-मौसम बुखार आए
और देह के रोम-रोम में समां जाए
उसे तपाए, तोड़े, कपाए, सताए
माथे तक चढ़ जाए
दवा, डाक्टर, जंतर-तंतर, होमियो-एलो
सबको धता बताए
कि जैसे होली में गाँव के घर-घर
‘जोगीरा-सा-रा' गाती
टोली में झूमती फ़ाग आए
भांग, अबीर, मंजीरा, ढोलक
झांझर, गुझिया, कान्हा, राधा,
पंचम सुर में धैवत गाए
जैसे किसान के खेत में मूसलाधार बारिश आए
मजदूर की आँख में नीद पसर आए
सरहद से किसी का फ़ौजी आए
मौसम की फसल में बाली आए
बारिश में भुट्टे की महक आए
बच्चे को छुट्टे की खनक आए
सुबहों को सूरज की धनक आए
कि जैसे तुम हर बार
आती हो
और तुम्हारा आना
हिंदी की सबसे ख़ूबसूरत क्रिया
बन जाती है !
Tuesday, 9 May 2017
स्पैरो
बड़े अधिकार से, फुदककर,
आँगन तलक टहल जाती थी
मैं भले कुछ बोलूँ-न-बोलूँ
वो फुदकती रहती थी, यूं कि जैसे,
मेरी बेटियाँ लंगड़ी टांग से स्टापू खेलती थीं
फूल कर ऊन का गुल्ला हो जाती थी
और काढती रहती थी चोंच से गर्दन
कि जैसे कोई बुढ़िया
सलाइयों से बिन रही हो स्कार्फ़ या स्वेटर
धूप बटोरा करता था और उसके साथ अखबार पढ़ा करता
ख़बरें समझ न आने पर वो गर्दन मटकाकर
चेहरे बनाया करती थी
मैं जब नाखून काटता और वो छिटककर उस तरफ़ गिर जाता
तो वो उसे कीड़ा समझकर खाने भी दौड़ती
और मैं उसके बुद्धू बनने पर बे-तहाशा हँसता
अखबार पढने नहीं जा पाया
जिसे ऊँगली से रगड़ दो तो वो हर दफ़ा
वही अख़बार वाली ख़बरें सुना देता था
बच्चे भी आँगन में खेलने नहीं जाते
वो मोबाइल में दिन भर एक खेल खेला करते हैं
मैं ये देखकर सहम गया हूँ कि
उस ऐप वाली चिड़िया की शक्ल
गौरैया से हू-ब-हू मिलती है
और मैं भागकर बच्चों से पूछता हूँ -
“ये वही गौरैया है क्या” ?
मगर वो ध्यान नहीं देते
और हर एक स्वाइप के साथ
उनके मोबाइल की स्क्रीन पर कुछ ‘एंग्री बर्ड्स'
दिन भर सर पटकती रहती हैं
और यकायक ऐसे ग़ायब हो जाती हैं, कि जैसे
वो कभी थी ही नहीं !!
Thursday, 30 March 2017
बम्बई
हरदम, दर बदर
फिर भी न हाँफता,
ख़ुदा न खाँसता,
दौड़ता रहता है, यहाँ हर रास्ता,
गलियों को चीरकर.
छूट गई हो तमंचों से गोलियां
या गेंदों के पीछे बच्चे
जो चले जाएँगे फ़लक तक,
ग़र जो रोके नहीं गए, पुकार कर.
आदमी से कंधे रगड़कर, छीलकर
फिर भी कोई पीछे नहीं देखता
बस बुहार देता हैं कन्धा
शर्ट से धूल झाड़ कर.
कि जैसे सोना कोई अपशकुन हो
कहते हैं कि ये शहर
सदियों से नहीं है सोया,
यहाँ भटकते हैं शिवाजी
म्यान में तलवार लेकर.
इतनी ऊंची इमारतें, इतनी जल्दी
कुछ यूँ बना देते हैं
कि जैसे पिट्ठू खेलते वक़्त
हम बना देते थे फटाफट
पत्थरों के ऊंचे टावर.
लम्बोर्गनी और फरारियां हैं
जो फ़रार हैं कब से,
फिर भी बस रेंग ही पाती हैं
किसी केंचुए की तरह
लम्बे ट्रैफिक जामों में फंसकर.
तुम भी हैरान हो जाओगी,
देखकर, कि यहाँ सब लोग
जल्दी में हैं, इतना
फिर भी समय पर
कोई, नहीं पहुँचता, यूँ भागकर.
इस क़दर,
फिर भी, इक ज़माने से
कहीं भी तो पहुँच नहीं रहा है.
कि ये जितना चलता-बढ़ता है,
उसे उतने ही क़दम पीछे
धकेल देता है, समंदर
लहरों के झाड़ू से झाड़कर.
जो रात भर मिलता था
तुम्हारी बाहों में
कि जब रुक जाता था सब कुछ
तुम्हारी गोदी में लेटकर
कि कभी न रुकने वाली
बम्बई में भी
मैं
रुक
गया
हूँ
तुमको
देखकर
ख़ुशी से
चौंक कर
Saturday, 8 October 2016
बकेट लिस्ट
अपनी बकेट लिस्ट
टिक करते हुए,
मैं दुनिया के सात अजूबे
देखना. नहीं चाहता.
न ही यूरोप के सुन्दर देश,
न ही जंगल, नदियाँ, पहाड़.
न इमारतें, मोन्यूमेंट, महल
पेंटिंग्स, स्कल्पचर या पिरामिड
अपने आख़िरी दिनों में
मैं बच्चों के किसी स्कूल जाकर
रोज़ाना तय समय से पहले
छुट्टी की लम्बी घंटी बजा दूं
और स्कूल के बच्चों को
बे-इन्तहा ख़ुशी से दौड़ते,
कूदते, फाँदते, खिलखिलाते
तब तक देखता रहूँ,
जब तक कि हो न जाएँ वो,
नज़रों से ओझल
Sunday, 18 September 2016
राम आसरे की बेटी
रोज़ सुबह तड़के, उठकर
स्लेट को अपनी फ्रॉक के
कोर से पोछती है
और स्लेट के ऊपर, बीचों-बीच
चाक से लिखती है 'ॐ'
और नीचे लिखती है पहाड़ा
दो एकम दो, दो दूनी चार का
और 10/10 को गोले में भरकर
ख़ुद ही 'वेरी गुड' लिख देती है
पीले रंग की गेटिस से
सफ़ेद फीते के फूल के साथ
बाँधती है छोटी सी चोटी
और डॉट पेन की स्याही से
सुबह के सूरज को देखकर
लाल रंग की बिंदी लगाती है
और रामआसरे की साइकिल पर
घनंघन घंटी बजाते हुए
बाल विद्यालय में पढ़ने जाती है
वहाँ गाती है पोएम
हिंदी की, अगंरेजी की
बबलू की और डब्लू की
हम्प्टी, डंपटी, बंटी की
हाथी की और चींटी की
थर्स्टी वाले कौए की
दूर गाँव के नौए की
हलवाई के पेठे की
आलू कचालू के बेटे की
वाटर कलर से सीनरी बनाती है
जिसमें वो तिकोने पहाड़ के पीछे
चमकदार सूरज निकाल देती है
और आस पास कौए उड़ा देती है
आसमानी रंग की नदी बहा देती है
और उसमें तैरा देती है तीन चार नाव
बनाती है एक टोपी वाली झोपड़ी
जिसमें एक गोले और तीन चार डंडी से बना
खड़ा दिखता है सरल सा राम आसरे
जब घर में मेहमान आते हैं
तो बिना शर्माए, घबराए
कहती है माई नेम इज़ मीरा आसरे
एंड माय फ़ादर्स नेम इज़ राम आसरे
तो राम आसरे उसके मुह से
अपना नाम सुनकर, ख़ुशी के मारे
रुआसा हो जाता है
और अपनी बेटी को
कन्धों के ऊपर, बिठा कर
मोहल्ले भर में घुमाता फिरता है
Tuesday, 6 September 2016
प्रेम में पड़े लोग
ये पागल चींटियाँ,
ख़ुद से हज़ार गुना भारी
बोझा ढोती फिरती हैं
दिन रात"
इशारा करते हुए
मैंने कहा.
इन जैसे ही होते हैं
अक्सर अपनी धुन में
बे-इन्तहा प्यार ढोते
आ जाते हैं
किसी के पाँव के नीचे"
मन मसोसते
उसने कहा
Monday, 5 September 2016
टीटू की साइकिल
टीटू साइकिल चलाना सीख रहा है
वो उसे उंगली पकड़ के टहलाता है
घर से मैदान, मैदान से घर
साइकिल के गर्भ में घुसकर
कैंची काट, डग भर
घंटी बजा, टननटन
टीटू साइकिल चलाना सीख रहा है
वो उसे केरियर से धक्का देता है
लंगड़े वाले कुत्ते के पीछे
आँखें खोल, आँखें मीचे
चढ़ाई से ऊपर, ढलान से नीचे
अपनी धुन में गज़ब मगन
टीटू साइकिल चलाना सीख रहा है
वो उसके पैडल पर पाँव रख तैरता है
घंटों एक ही रस्ते पर गोल-गोल
जाने कितनी बार गिरता है
घुटना गया फूट, ये भी नहीं सोचता है
घुटना छोड़ अपनी साइकिल पोछता है
टीटू साइकिल चलाना सीख रहा है
अब वो उचक कर गद्दी पर बैठ जाता है
इधर उधर मटकाता हुए कूल्हा
घोड़ी पर जैसे बैठा हो दूल्हा
चौड़ी सी छाती, सीना भी फूला
सरपट रेस लगाता है
टीटू साइकिल चलाना सीख गया है
अब वो आसमान से बातें करता है
परिंदों की तरहा, उड़ता है फ़ुर
दिल्ली, बनारस, भटिंडे, कानपुर
हाँकता है जैसे तांगा हुर्र हुर
दूसरी दुनिया में पहुँच जाता है
टीटू साइकिल चला रहा है
और साइकिल चलाते चलाते
दूसरी दुनिया पहुँच गया है
दूसरी दुनिया में न आइसिस है
न पाकिस्तान, न चीन
न गिरता है सेंसेक्स
न गिरता है बम
न मिलते हैं मैडल
न पास होते हैं बिल
बस साइकिलें हैं
और टीटू जैसे बहुत सारे बच्चे
जो दिन रात साइकिल चलाते हैं
और अपनी साइकिल में
इस बासी दुनिया से अलग
एक नई प्यारी दुनिया बसाते हैं
Wednesday, 20 July 2016
शौहर की तरफ़ से, बीवियों पर एक ललित निबंध
बीवियों को शौहर के माथे की शान-ओ-गुरूर होना चाहिए
बीवियों को दुनिया भर के देखने की दिलरुबा होना चाहिए
बीवियों को शौहर के आने का इंतज़ार करना चाहिए
बीवियों को शब-ए-रात, शौहर की बेरुखी सहना चाहिए
बीवियों को चुप-चाप, अन्दर ही अन्दर घुटना चाहिए
बीवियों को चाहते-न-चाहते शौहर के साथ रहना चाहिए
बीवियों को शौहर की बाँहों में दम तोड़ देना चाहिए
बीवियों को शौहर के लिए धरती का स्वर्ग होना चाहिए
Sunday, 10 July 2016
खरगोश का घर
एक कविता लिख रहा हूँ,
शब्द पर शब्द रखकर
मात्रा-वात्रा लगाकर
बना रहे हैं घर
ईंटे पर ईंटा रखकर
पत्थर-वत्थर सटाकर
एक घर हो जाएगी
और घर पूरा होकर,
हो जाएगा एक कविता
अब अकेले नहीं रहना होगा
Thursday, 7 July 2016
तलब
एक थ्री बी.एच.के. घर की
लम्बी सेडान कार की
अप्रेज़ल और प्रमोशन की
पिता को जल्दी रिटायरमेंट की
एक घंटा एक्स्ट्रा अख़बार पढने की
सुबह उठते ही चाय पीने की
राजू को पतंग लूटने की
मर्तबान में टैडपोल पालने की
सेंट वाली इरेज़र की
मिस कपूर को मालबोरो की
स्टेलाटोस और डायमंड की
सो सकने के अधिकार की
बाई को टाइम पे तनख्वाह की
दो सौ रूपए बख्शीश की
दीवाली, होली पे सूती साड़ी की
माँ को दोपहर की नींद की
सफ़ेद कपड़ों की साफ़ धुलाई की
दूध में अच्छी मलाई की
बुधिया को बारिश की
रबी, खरीफ़, जायद की
चावल में अच्छी फली की
दादी को मजबूत जोड़ों की
पक्के वाले नकली दांत की
कुम्भ में स्नान की
रुमझुम को अच्छी सेल्फ़ी की
बिना पिम्पल के चेहरे की
सब कुछ पिंक होने की
ख्वाहिश है, तलब है
सोचता हूँ, कि,
घर, कार, अख़बार,
चाय, मालबोरो, बख्शीश,
नींद, मलाई, इरेज़र
पतंग, फली, और दांत जैसी
छोटी-छोटी चीज़ों की तलब,
ज़िन्दगी को
कितना आसान बना देती है
और उनके पीछे
जुगनुओं की तरह
भागते-दौड़ते
हमें ज़िन्दगी के असल मायने
खोजने के लिए,
जूझना, उलझना, सोचना नहीं पड़ता
और एकदिन थककर, हताश होकर
गौतम बुद्ध नहीं होना पड़ता
Sunday, 6 March 2016
कॉटन
यार ! चलो कहीं चलते हैं,
घूम-फिर-आने जैसा 'चलने' नहीं
चलते-चले-जाने जैसा 'चलने' के लिए
यूँ नहीं कि पंछियों जैसा उड़ें
तो हर शाम लौट आने के लिए
चलें वहां, जो दफ़्तर, स्कूल या मार्किट न हो
चलें तो ऐसा, कि लौट आने की सुध न हो
जैसे दो बच्चे क्रिकेट खेलने निकल गए हों
माँ कितना भी बुलाए, पर वो लौटें न
भरी दुपहर, घाम, धूप, शाम, छाँव, रात
बिना प्लान, बिन सामान, चले चलें
जैसे पापा की ऊँगली थामे
उसे झुलाते, चलते चले जाते थे
चलें, तो यूँ नहीं कि चलता देख,
कोई कहे, कि, "चलना ही ज़िन्दगी है"
चलें तो यूँ कि कपास के बीज की तरह
निरन्तर उड़ते रहेंं, रुई वाला बाबा बनकर
दो पल के लिए रुकें भी किसी की मुट्ठी में
तो खोलते ही फिर उड़ जाएं
चलें, कपास से टूटे,
कपास का आवारा बीज, बनकर
जिसे कपास के बाकी रेशों की तरह
कॉटन की बोरिंग वरदी नहीं बनना पड़ता
Saturday, 7 November 2015
घर से दफ़्तर का रास्ता
कनेर की फूलों की एक क्यारी है
जिसमे रोज़ाना नए फूल खिलते हैं,
पर मैं उनके उगने-खिलने का हिसाब
उँगलियों पर नहीं रख पता
ये भी नहीं देख पाता कि
उनकी पंखुड़ियों पर उकड़ूँ बैठी तितलियाँ
उनमें क्या झाँकती फिरती हैं
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है
मेट्रो स्टेशन के किनारे, एक सपेरा बैठता है,
मुझे नहीं मालूम पड़ता कि आज साँप
दस का नोट निगल गया होगा या पांच का
करतब में बजी होगी ताली
तो कितनी भरी होगी थाली
मैं देख नहीं पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है
रोज़ घर से मिसकॉल आता है
घर जो कानपुर में है, वहां से
दिल्ली में ठण्ड पड़ रही है ?
या हो रही है बारिश
खाना खा रहा हूँ, ढंग से
और पी रहा हूँ दूध?
मैं इसका जवाब नहीं दे पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है
सोसाइटी का गार्ड रोज़ नमस्ते बोलता है
आठ महीने से बोल रहा है शायद
वो दरवाज़ा झट से तीन सेकेण्ड में खोल देता है
फिर अच्छा सा'ब कह के
न जाने क्या जानना चाहता है
या नहीं भी जानना चाहता हो शायद
मैं इसकी पड़ताल नहीं कर पाता,
और नमस्ते का जवाब भी नहीं दे पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है
एक अधूरी नज़्म है
जो पेट से हो शायद
मुझे घूर-घूर कर देखती है
पर मैं डरता हूँ, इस कदर
कि वो आस से न हो शायद,
उसे भी, आँखों में आँखें डालकर
मैं देख नहीं पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है
और भी रास्ते हैं,
जो दफ़्तर नहीं जाते
सिनेमा, सर्कस, थियटर
दोस्त, माशूक़ा, ज़िंदगी
खेत, दरिया, बीहड़
और न जाने कहाँ-कहाँ तक जाते होंगे
मैं अनदेखा कर जाता हूँ
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है
कितना अलग है
घर से, कहीं भी और पहुँचने से
कितना अलग है
कहीं भी,
सीधा न, पहुँचने से !
Wednesday, 19 August 2015
Bijuka (Sacrecrow)
तुम्हारे इश्क़ को
फूस के पुतले की तरह
दुनिया-जहाँ के
इस खलिहान में
बीचों-बीच
बिजूका बनाकर
खड़ा कर लिया है मैंने !
फटी बुशर्ट और
टेढ़ी हैट में
ख़याली
भुरभुरा
निठल्ला
मजाकिया
और पोला-पोला
ही सही
पर ये पुतला
कारगर है !
अब दिन-ओ-शाम
नीदें ख़राब, जाग कर, मुझे
फ़िक्र-ओ-ग़म के
काने-काले-कौवों को
हाँकना नहीं पड़ता !
तुम्हारे इश्क़ को
फूस के पुतले की तरह
दुनिया-जहाँ के
इस खलिहान में
बीचों-बीच
बिजूका बनाकर
खड़ा कर लिया है मैंने !
फटी बुशर्ट और
टेढ़ी हैट में
ख़याली
भुरभुरा
निठल्ला
मजाकिया
और पोला-पोला
ही सही
पर ये पुतला
कारगर है !
अब दिन-ओ-शाम
नीदें ख़राब, जाग कर, मुझे
फ़िक्र-ओ-ग़म के
काने-काले-कौवों को
हाँकना नहीं पड़ता !
Thursday, 16 July 2015
विक्रम और बेताल
या एक रोज़ विक्रम और बेताल हो जाना
इस नई जनरेशन के 'सिनिसिज़म' के बीच,
बासी पुरानी कहानियों से बोर होकर
तुम जब भी कभी फुर से उड़ो
तो देर सबेर लौट ज़रूर आना
और इन कांधो पे वापस अटक जाना
और भी बहुत सी कहानियाँ
सुननी सुनानी हैं !
Sunday, 12 July 2015
के.एल.सहगल
यूँ-ही, अनायास
फिर मिलेंगे,
तनी से कन्नी मारकर,
तुम्हें, हवा मैं तैरते
के.एल.सहगल के गाने जैसा
खोज निकालूँगा !
Wednesday, 8 July 2015
Thursday, 2 July 2015
अब पहले की तरह कविताएँ नहीं आतीं
कविताएँ नहीं आतीं
गाहे-बगाहे, बिना बताए
ज़ेहन में, यूँ ही,
कितने हक़ से चली आती थीं
पंजों पर उछलती कूदती
मुझसे पूछे बगैर, चली आती थी,
और चोंच से, सुकून से
काढती रहती थी अपने पंख
बुढ़िया के बालों सा उड़ता हुआ,
हथेली से टकरा जाता था
कुछ देर मुट्ठी में सिकुड़ कर
फिर निकल पड़ता था टकराने
किसी और की मुट्ठी से
बारिश में भीग कर छींकने पर
और फिर तमाम-तमाम देर
लगातार आती रहती थी
छींक की तरह
हाथी वाला बाबा
और दस का नोट छुआ कर
स्प्रिंग की तरह, सूंड नचाकर
सलाम करता था उसका हांथी
कविताएँ नहीं आतीं
दीवानगी और शौक से
पढ़ते तो भी तो नहीं है
महबूब के लिखे
अंतरदेसी और पोस्टकार्ड
पीठ पर लिखी
किसी की उंगली की पहेली
बच्चों के झुण्ड
स्कूलों में इमला
आँखों में छिपी
जाने-कौन-सी-बात
चाय के दाग वाला
सनडे का अखबार
कविताएँ नहीं आतीं
आती हैं तो
ऐसे, जैसे,
बे-मौसम का बुखार
झील में खरपतवार
दूर के मेहमान
या इम्तहान का रिज़ल्ट
पहले की तरह,
नींद जैसे क्यों नहीं आतीं ?
कि बस आएं और
इस दनिया से इतर
किसी और सी दुनिया में
सुकून से छोड़ आएं !
Thursday, 26 March 2015
क्लीशे
डर बस इस बात का है
कि एक दिन
सब 'क्लीशे' लगने लगता है
इमप्रैक्टिकल,
बचकाना हो जाता है
बात-बात पर, महबूबा को
"आई लव यू" कह देना
अब कूल नहीं लगता
पर बहुत कुछ होता था
पर अब पसंद नहीं आता
लाल रंग, नाइंटीज़, गुब्बारे
चोपड़ा या करन जौहर
मुझे "बाबू" या "जानू" मत कहा करो
कितना चीज़ी लगता है !
"काम ज़्यादा ज़रूरी है"
"और हम अब बच्चे नहीं रहे"
हर काम की एक उमर होती है
और होता है, वक्त का तकाज़ा
ज़्यादा ज़रूरी होता है
खुली छत पर लेटकर
सुकून से, रात भर
खुला आसमान तकने की
बचकानी सी ख्वाहिश से
कहीं ज़्यादा ज़रूरी
होता ही होगा शायद !
पर डर तो लगता है न !
सब 'क्लीशे' लगने लगता है
इमप्रैक्टिकल,
बचकाना हो जाता है
Sunday, 22 March 2015
टिक-टैक-टो
आसमान में तारे
ताक रहा था
मोगरे के सफ़ेद फूल
जूड़े में सजाए
जो यूं ही काली स्लेट पर
खेल रही थी
कट्टम और जीरो
या आसमान में तारे
Wednesday, 18 March 2015
मूंगफलियाँ
कहानियाँ नहीं लिख पाता
कविताएँ लिख लेता हूँ
बस आनन-फ़ानन में
जूडा बाँध लेती हो !
पर जैसे कोई सोमवार
नाम बदल कर आया हो
तुम्हारी स्किन पर
सन-स्क्रीन देख कर
लौट जाती हैं
पाँव भर ही खरीदीं थीं
यूँ ही रखे हुए
आधी से ज्यादा सील गईं
जो पिछले महीने खोई थी
न मालूम कहाँ होगी
खोजने का वक़्त भी नहीं मिला
वक्त मिला तो
दफ्तर में
बैक-टू-बैक
मीटिगों के बीच
दोनों, सोचेंगे
कि पहले
मेरे घुटनों में सर फंसाकर
तुम घंटों मूंगफलियाँ चबाती रहती थी
और मैं, तुम्हारे बालों में तेल लगाते
कसी-मोटी चोटी बनाते
कितनी ही कहानियाँ गूँथ लेता था
छिलके बीनते कहती थी
"ये लो ! ये पायल
यहीं तो थी
चादर के नीचे
बुद्धू !!"
Monday, 2 February 2015
प्लूटो
तुम भी हमसे कह देना
कि सुनो रे 'प्लूटो'
ये तुम्हारा वज़ूद,
अब चलो यहाँ से फूटो !