Thursday, 26 March 2015

क्लीशे

जानती हो ?
डर बस इस बात का है
कि एक दिन
सब 'क्लीशे' लगने लगता है
और, चीज़ी,
इमप्रैक्टिकल,
बचकाना हो जाता है
न मालूम क्यों, पर उन्हें
बात-बात पर, महबूबा को
"आई लव यू" कह देना
अब कूल नहीं लगता
पहले "कुछ कुछ होता है"
पर बहुत कुछ होता था
पर अब पसंद नहीं आता
लाल रंग, नाइंटीज़, गुब्बारे
चोपड़ा या करन जौहर
तुम भी तो कहती हो, कि
मुझे "बाबू" या "जानू" मत कहा करो
कितना चीज़ी लगता है !
"दफ़्तर से इतना छुट्टी मत लिया करो"
"काम ज़्यादा ज़रूरी है"
"और हम अब बच्चे नहीं रहे"
वो सब भी यही कहते हैं, कि
हर काम की एक उमर होती है
और होता है, वक्त का तकाज़ा
कि करियर और एम्बिशन
ज़्यादा ज़रूरी होता है
खुली छत पर लेटकर
सुकून से, रात भर
खुला आसमान तकने की
बचकानी सी ख्वाहिश से
कहीं ज़्यादा ज़रूरी
क्या मालूम ?
होता ही होगा शायद !
पर डर तो लगता है न !
डर !
कि एक दिन
सब 'क्लीशे' लगने लगता है
और, चीज़ी,
इमप्रैक्टिकल,
बचकाना हो जाता है

Sunday, 22 March 2015

टिक-टैक-टो

डेजा वू समझती हो ?
कल देर रात तक
आसमान में तारे
ताक रहा था
फिर आज दिखी तुम
मोगरे के सफ़ेद फूल
जूड़े में सजाए
और दिखी वो बच्ची
जो यूं ही काली स्लेट पर
खेल रही थी
कट्टम और जीरो
जैसे, जूड़े में मोगरे
या आसमान में तारे
डेजा वू !

Wednesday, 18 March 2015

मूंगफलियाँ

मैं आजकल
कहानियाँ नहीं लिख पाता
कविताएँ लिख लेता हूँ
तुम भी तो चोटी नहीं बनाती 
बस आनन-फ़ानन में
जूडा बाँध लेती हो !
इतवार अब भी आता है
पर जैसे कोई सोमवार
नाम बदल कर आया हो
गुनगुनी सी दोपहरें
तुम्हारी स्किन पर
सन-स्क्रीन देख कर
लौट जाती हैं
मूंगफलियाँ, जो इस सर्दी में
पाँव भर ही खरीदीं थीं
यूँ ही रखे हुए
आधी से ज्यादा सील गईं
जोड़ी की एक पायल
जो पिछले महीने खोई थी
न मालूम कहाँ होगी
खोजने का वक़्त भी नहीं मिला
गर जो कभी
वक्त मिला तो
दफ्तर में
बैक-टू-बैक
मीटिगों के बीच
दोनों, सोचेंगे
कि पहले
कैसे,
इतवार की हर गुनगुनी धुप में
मेरे घुटनों में सर फंसाकर
तुम घंटों मूंगफलियाँ चबाती रहती थी
और मैं, तुम्हारे बालों में तेल लगाते
कसी-मोटी चोटी बनाते
कितनी ही कहानियाँ गूँथ लेता था
और आख़िर में तुम चादर पर से
छिलके बीनते कहती थी
"ये लो ! ये पायल
यहीं तो थी
चादर के नीचे
बुद्धू !!"