Tuesday 9 May 2017

स्पैरो

मेरे घर में एक गौरैया आती थी
बड़े अधिकार से, फुदककर,
आँगन तलक टहल जाती थी
मैं भले कुछ बोलूँ-न-बोलूँ
वो फुदकती रहती थी, यूं कि जैसे,
मेरी बेटियाँ लंगड़ी टांग से स्टापू खेलती थीं

वो आँगन भर की हवा सीने में भरकर
फूल कर ऊन का गुल्ला हो जाती थी
और काढती रहती थी चोंच से गर्दन
कि जैसे कोई बुढ़िया
सलाइयों से बिन रही हो स्कार्फ़ या स्वेटर

मैं गुनगुनी दोपहरों में चेहरे पर अन्गौंछा ढाँपकर
धूप बटोरा करता था और उसके साथ अखबार पढ़ा करता
ख़बरें समझ न आने पर वो गर्दन मटकाकर
चेहरे बनाया करती थी
 मैं जब नाखून काटता और वो छिटककर उस तरफ़ गिर जाता
तो वो उसे कीड़ा समझकर खाने भी दौड़ती
और मैं उसके बुद्धू बनने पर बे-तहाशा हँसता

इधर बीच मैं तमाम दिनों से आँगन में बैठ कर
अखबार पढने नहीं जा पाया

मेरे बच्चों ने एक मोबाइल दिला दिया था
 जिसे ऊँगली से रगड़ दो तो वो हर दफ़ा
वही अख़बार वाली ख़बरें सुना देता था
 बच्चे भी आँगन में खेलने नहीं जाते
वो मोबाइल में दिन भर एक खेल खेला करते हैं
वो न मालूम क्यों उसे ‘एंग्री बर्ड्स’ कहते हैं

उन्होंने चिड़िया की शक्ल वाली एक ऐप भी डाली है 
और उस पर मेरी बेटी ने कल एक ट्वीट किया है -
“Sparrows have gone extinct”
मैं ये देखकर सहम गया हूँ कि
उस ऐप वाली चिड़िया की शक्ल
गौरैया से हू-ब-हू मिलती है
और मैं भागकर बच्चों से पूछता हूँ -
“ये वही गौरैया है क्या” ?
मगर वो ध्यान नहीं देते

वो बस खेल में मगन, स्वाइप करते रहते हैं
और हर एक स्वाइप के साथ
उनके मोबाइल की स्क्रीन पर कुछ ‘एंग्री बर्ड्स'
दिन भर सर पटकती रहती हैं
और यकायक ऐसे ग़ायब हो जाती हैं, कि जैसे
वो कभी थी ही नहीं !!