यार ! चलो कहीं चलते हैं,
घूम-फिर-आने जैसा 'चलने' नहीं
चलते-चले-जाने जैसा 'चलने' के लिए
यूँ नहीं कि पंछियों जैसा उड़ें
तो हर शाम लौट आने के लिए
चलें वहां, जो दफ़्तर, स्कूल या मार्किट न हो
चलें तो ऐसा, कि लौट आने की सुध न हो
जैसे दो बच्चे क्रिकेट खेलने निकल गए हों
माँ कितना भी बुलाए, पर वो लौटें न
भरी दुपहर, घाम, धूप, शाम, छाँव, रात
बिना प्लान, बिन सामान, चले चलें
जैसे पापा की ऊँगली थामे
उसे झुलाते, चलते चले जाते थे
चलें, तो यूँ नहीं कि चलता देख,
कोई कहे, कि, "चलना ही ज़िन्दगी है"
चलें तो यूँ कि कपास के बीज की तरह
निरन्तर उड़ते रहेंं, रुई वाला बाबा बनकर
दो पल के लिए रुकें भी किसी की मुट्ठी में
तो खोलते ही फिर उड़ जाएं
चलें, कपास से टूटे,
कपास का आवारा बीज, बनकर
जिसे कपास के बाकी रेशों की तरह
कॉटन की बोरिंग वरदी नहीं बनना पड़ता