Friday 30 August 2013

तुरपाई

अभी तो बस इब्तदा है मियाँ,
और इश्क़ में उबकाई आती है !
कल को दिल भी छलनी होगा, 
तुम्हें 'तुरपाई' आती है ?

शराब

आखों पे पलकें, हिज़ाब करके आए
वो आँखों को कच्ची शराब करके आए 

जहाँ हर किसी को थी, पीने से तौबा 
वो पूरा मोहल्ला, ख़राब करके आए !

दस्तख़त

ख़ुदा' तुम्हें,

जब भी नकारने लगता हूँ 
तुम्हारे दस्तख़त 
इंगे-उंगे, नज़र आ ही जाते हैं 

अभी कल ही की बात है, 
जब उस प्यारी सी, 
बच्ची के गाल पर, मैंने 
तुम्हारा सुरमई दस्तख़त देखा 

यहाँ, ज़मीं पर, 
कुछ लोग उसे 
'तिल' भी कह देते हैं !!

बीच वाली उँगली

मैं बचपने में हर खेल में फिसड्डी हुआ करता था. लेकिन एक खेल ऐसा था जिसमें कोई भी मुझसे पार नहीं पा सकता था. खेल का नाम था - बीच वाली उँगली. मैं बाकी की तीन उँगलियों और अंगूठे के बीच, अपनी बीच वाली उँगली को ऐसे छिपा लेता था कि मजाल है कि कोई उसे ढूंढ पाए !

तुम लडकी हो इसलिए तुम्हें भी लगता था कि तुम खेलों में फिसड्डी ही साबित हो जाओगी. शायद इस वजह से तुम भी घंटों मेरे साथ वही खेल खेला करती थीं. 

एक दिन तुमने बताया कि पिता जी का तबादला हो गया है और तुम शहर छोड़ कर जाने वाली हो. तुमने कहा कि मैं तुम्हें कहीं छिपा लूं. तुम संदूक में फिट नहीं हो पाई, इसलिए मैंने तुम्हें खटिया के नीचे छिपा दिया पर तुम्हारे पिता जी ने उसकी जालीदार निवाड़ में झांककर तुम्हें झट से खोज लिया. 

और तुम चली गईं. 

काश... उस दिन, मैं तुम्हें अपने अंगूठे और बाकी की तीन उँगलियों के बीच छिपा लेता !!

काश !!

इश्क़ क्लीशे हुआ तो क्या

इश्क़ क्लीशे हुआ तो क्या ! फ़रमाया करो 
गालों के तिल पे भी कभी दाँव, लगाया करो 

यूँ तो सबको चाँद सा ही दिखता है चाँद 
कभी प्यार से उसे, 'मामा' बुलाया करो 

चिड़ियों को उड़ता देख यूँ, मायूस होते हो 
तबियत से तुम भी तो बाहें फैलाया करो 

वो बच्ची है बड़ी प्यारी, ज़रा सा रूठ जाती है 
उसे चुपके से आकर के, गुदगुदाया करो !

किवाड़

वो मेरे घर में 
किवाड़ की तरह रहे 
बेडरूम और बैठकी में 
फटकने से, 
डरते-कतराते थे 

मैं चिढ़ता-कुढ़ता रहा 
उनकी चाँय-चाँय 
और ख़ट-पट से 

मेरे माँ-बाप, मगर 

खड़े रहे,
सालों-साल ! 
ना जाने कौन सी 
अनहोनियों को 
घर में घुसने से 
रोकने के वास्ते !

न ग्रीज़िंग मांगते थे, 
न ऑयलिंग 
अपने झुर्रीदार कब्जों के ख़ातिर 

उन्हें कुंडी में रखता था 
मगर जब भी धकेला,
तो वो झट से खोल देते थे 
यूँ अपनी काठ की बाहें !
कि जैसे धूप आने पर 
मचल जाता है सन-फ्लावर !

फ़रमाइश

मिठाई फेंक देता है, कि मिट्टी फांक लेता है 
बच्चा माँ के आँचल में, ये दुनिया झाँक लेता है 

नहीं वो राम की सुनता, न वो अल्लाह को समझे 
जो कह दे माँ, तो चंदा को भी, मामा मान लेता है 

अभी सीखा नहीं चलना, वो घुटनों पर घिसटता है 
मगर जो माँ पुकारे तो, उड़ारी मार लेता है 

वो तिनकों के नशेमन में, छुपी चिड़िया सा लगता है 
वो अपनी माँ के कन्धों पे, यूँ बाहें टांग लेता है 

बड़ी फ़रमाईशे करता है, जुगनू से सितारों तक 
ये सब कुछ दे नहीं पाती, वो सब कुछ मांग लेता है !

गेंद

इश्क़ में तेरे 'गेंद' बनूँ मैं, उछलूँ टप्पे-टप्पे 
सब लुढ़कें हैं 'सुर्री', और मैं कूदूँ चप्पे-चप्पे 
छोटी क्रेज़ी बॉल के जैसे, लेफ़्ट-रैट कटता हूँ 
देख रहे हैं लोग-बाग़, हैराँ-हैराँ, भौंचक्के !

अक्कल दाढ़ !!

'पंख', सिर्फ़
चिड़ियों को ही 
नहीं होते 

'पंख', कभी-कभी 
ऐसे निकल आते हैं 
जैसे, ज़ेबों से 
मूंगफलियाँ !
जैसे, खुजाने से 
बलतोड़ !
या मूतने से 
कुकुरमुत्ता !

पंख उग आते हैं 
बरसात में बिलबिलाते 
चींटे को 
उसे "ततैय्या" बनाने को 

पंख उग आते हैं 
घर में मुश्किलें आने पर 
पापा को 
उन्हें "सुपरमैन" बनाने को 

पंख उग आते हैं 
नीला रिबन बाँधे,
स्कूल जाती, गुड़िया को 
उसे "परी" बनाने को 

पंख उग आते हैं 
आदिवासियों की 
बन्दूक की बैरल को 
उन्हें "माओवादी" बनाने को 

'पंख', सिर्फ़
चिड़ियों को ही 
नहीं होते 

पंख, कुछ इस तरह
निकल आते हैं 
जैसे, मसूढ़ों को चीरकर 
अक्कल दाढ़ !!

स्टैच्यू

इक दफ़ा 

जब, तुमने 
मेरी उंगली थामी थी 
काश ! मैं तुम्हें 
उसी वक़्त 

"स्टैच्यू" कह देता 

और 
हम - तुम 
"तस्वीर" हो जाते 

लकीरों को भी 
मुह चिढ़ाते, 
हम - तुम 

"तक़दीर" हो जाते !

चुईंगम

तुझसे तो, 
तेरा ख़याल अच्छा 

जिसे,
चुईंगम की तरह 
घंटों चबा सकता हूँ !

फोड़ सकता हूँ,
फुला सकता हूँ !

'इसे' मैं थूक भी दूँ तो, 
कभी उंगली, 
कभी हवाई चप्पल,
तो कभी, 
मूछ और होंठ के बीच 

"जोंक" सा चिपक जाता है 

'कमिटमेंट' 
सीखना है तो 
तेरे ख़याल से सीख

ज़िक्र

बड़े दिनों से कोई, इस घर नहीं है आया 
उधर चला गया क्या? इधर नहीं है आया 

उस छोकरी का फ़ौजी, जो जंग पे गया था 
वो धड़ तो आ गया है, पर सर नहीं है आया 

वो पोटली का बाबा, बुढ़ियों के बाल लेकर 
निकला था जो कमाने, शहर, नहीं है आया 

सूरज सुबह उगा था, पूरब की उस नदी से
पानी में घुल गया क्या? नज़र नहीं है आया

फ़तूर

इश्क़ कहिए,
या फ़तूर कहिए
जिसे चाहे, उसका,
क़सूर कहिए

इस मर्तबा


इस मर्तबा
तुम मेरे सपनों में 
पतंग बन कर आना 

हम दोनों पतंगें
कुछ देर गलबहियां डाले
उलझते-ढीलते रहेंगे 

और फिर तुम 
मेरी कन्नी काटकर

मुझे,
उसके मांझे से 
'मुक्त' कर देना 

कुछ देर, आसमान में 
इंगे-उंगे भटक कर 
मैं, पक्का,
तुम्हारी ही बालकनी में 
आ गिरूंगा 

तुम, झट से मुझे 
लूट लेना 

इस मर्तबा

जज़्बा


ये बात 
ख़ासी अजीबो-गरीब है 

कि तुम 
ज़मीन से 'उड़ी' मारकर 
'अपोलो' और 'लूना' से 
चाँद तलक़ भी पहुँच गए 

लेकिन,

एक छाती लाँघ के, 
दूसरी छाती, 
उसके दिल तलक़ 
पहुँचने के मिशन में 

कभी तुम्हारा 'ईंधन' 
कम पड़ गया 
और कभी तुम्हारा 
"जज़्बा"

आईने

आईने, रहने दो

माँ और महबूबा की 
"आँखें" 
काफ़ी हैं 

जो खुद को
देखना हो तो
ज़रा सा झाँक लेता हूँ

झुरझुरी

एक बार फ़िर 

तुम आईं, 
पुरानी शाखों पर 
नए पत्ते की तरह 

और मैं लहलहा उठा 
सर्द रात में 
कांपते बदन की 
झुरझुरी की तरह  

एक बार फ़िर  

अल्लाह-हू-हक़

मुझे डिट्टो 
वही वाला 
"अल्लाह" 
ले आ दो,

जो सूफी क़व्वालों की 
क़व्वालियों में 
बसता है 

कोई दूसरा वाला 
अल्लाह 
नइयो-नइयो
लभणा !!

नए दांत

एक कवि, 
छोटे बच्चों जैसा होता है 
जो नए-निकलते दांतों
के "अरसाने" से 

हर चीज़ काटते फ़िरते हैं 

उँगलियाँ, चप्पल, मिट्टी, 
तश्तरियाँ, बक्कल, चिक्की 

भले उनकी हथेलियों में 
नीम-करेला-मिर्ची मल लीजिए,
वो उन्हें चूसना नहीं छोड़ते

कविता 
शौक़ की उपज नहीं है 
कविता उलझन है 
मजबूरी है

कौन किसका अंडा है?

ये तो, तब भी, आसान सवाल है 
कि मुर्गी ने अंडा बनाया 
या फ़िर अंडे ने मुर्गी बनाई 

जटिल सवाल तो ये है, 
कि खुदा ने इंसान बनाया 
या खुद इंसान ने खुदा बनाया 

कौन किसका अंडा है?

'खुद' इंसान का अंडा - 'खुदा' है  
कि 'खुदा' का अंडा - 'इंसान खुद' 

और अगर नहीं है, 
दोनों में से कोई, 
किसी का अंडा 

तो इस लिहाज़ से 
'खुदा' - 'खुद' का अंडा हुआ !
और 'खुद इंसान' - अंडा हुआ 'खुद' का !  

लेकिन, फ़िर.
क्या इसका मतलब
ये भी हुआ, कि 

खुदा मुर्गी है ?

बड़ा जटिल सवाल है !!

चौकीदार

 हर ज़मात के 
दो-चार-चुनिन्दा 
सिरफ़िरे लोगों का 
"हगा" हुआ 
बटोरने का जिम्मा 

पूरी ज़मात पर होता है 

और ये सुनिश्चित करने को,
कि ज़मात 
उनका "हगा" हुआ 
बटोरने से 
इनकार ना करे 

समाज के ठेकेदार 
और लम्बरदार 
एक चौकीदार खड़ा कर देते हैं 

जिसे अदब से हम 
"मज़हब" कहते है

जब-जब 
इन सरफिरों के पेट में 
मरोड़ें उठती हैं 

कश्मीर या गोधरा
चौरासी या अयोध्या
बोस्निया-हर्जेगोविना 
यहूदी या चेचन्या
वियतनाम या कोरिया

लट-पटा जाता है 
गंद-फंद से 

और पूरी की पूरी
ज़मात 
चौकीदार की देख-रेख में 
जुट जाती है 

उन चंद सरफिरों का
"हगा" बटोरने में 

और बिना इनकार किए 
उसे 
इंसानियत के चेहरे पर 
दोनों हाथ से 

लेपने में

रफ़ू

चुपड़ी रोटी खाय के, 
ठण्डा पानी 'पी' 
कल को 'खूँ' भी मिलेगा, 
इसी आस में 'जी' 

दिल में होया छेद, ज़रा 
पैबंद लगा के 'सी' 
कल को जख्म भरेगा, 
तब तक, रफ़ू करा के 'जी'

अरसा गुज़र गया

चेहरा कोई चूमे हुए, अरसा गुज़र गया 
सब याद है, भूले हुए, अरसा गुज़र गया 

घर से निकलके रोज़, अपने घर ही लौटना 
रस्ता कोई भूले हुए, अरसा गुज़र गया 

न तू करे शिकायतें, न मैं गिला करूँ
बाहों में टूटते हुए, अरसा गुज़र गया 

बुतों में, मूरतों में, हरेक भेस में आया 
मौला तुझे, मौला हुए, अरसा गुज़र गया 

क्या ख़ूब कायदे से, धड़कता है दिल मेरा 
रुका नहीं, थमे हुए, अरसा गुज़र गया 

ये चाँद, ज्यों-का-त्यों, यूं आसमान में रहा
मामा से मिलता भांजा, अरसा गुज़र गया

फ़ब्बत

खुदा वे,

मैं ये सवाल 
हम पुरुषों की 
रुखी-सुखी ज़मात 
की ओर से 
पूछना चाहता हूँ 

जब हमें बनाने बैठे थे 
तो हमारे भी मिट्टी के लोंदे में 
बस एक चम्मच शक्कर 
और एक चम्मच अफ़ीम 
मिला दिया होता

सारी की सारी "दिलकशी" 
"रूह-ए-नूर"
और फ़ब्बत का सोणा पन 
स्त्रियों को देकर 

तुम 
हम पुरुषों से 
थोड़ी बेमानी नहीं कर बैठे ? 

हमने, कौन सा, 
तुम्हारे अफ़ीम और गन्ने के
पूरे बागीचे मांग लिए थे ?

बस बात की बात है ..... 
अगर पूछ सकूं तो .....

कबाड़ीवाला

यार सौदागर,

बचपने में तुम हमेशा 
तमाम सारे
रद्दी कागज़, अखबार, 
कांच और प्लास्टिक के बदले 

दस-बीस रूपए दे जाते थे 
जिनसे आती थी हमारे लिए 
इमली की टॉफी 
और बेर का चूरन 

किलो भर कबाड़ के बदले 
तुम, कितनी उदारता से 
अपने तराजू से तौलकर
छुटका और मुझे 
कुंटल भर खुशियाँ 
थमा जाते थे 

सब तुम्हें
कबाड़ीवाला कहते थे 
लेकिन मुझे तो 
तुम्हारे हुनर में 
साफ़-साफ़
खुदा का अक्स दिखता था 


--


इधर बीच तुम 
एक अरसे से नहीं आए 
छुटका बड़ी हो गई 
और मेरी भी उम्र पक़ चली


हो सके तो 
फ़िर से 
अपना तराजू लेकर आओ ना 

कितनी ही गैरज़रूरी 
चीज़ों के बदले 
छोटी-छोटी खुशियाँ 
खरीद लेना चाहता हूँ

मन भर 'तनहाई' है
कुंटल भर 'उलझनें'
और पसेरी भर पीर 

खुदा बनकर ...
फ़िर से आओ ना... 

चूमना मना है

फ़रमान आया है कि
इस महीने की चौदह को 
चूमना मना है 

चूमने से ये मुल्क 
और इस मुल्क की सभ्यता 
वेस्टर्न होकर 
भ्रष्ट हो जाएगी 

बात लाज़मी भी है 

ये हिंदुस्तान है बे 
ऐसे ज़ाहिल फ्रांसीसी अदा से 
मुह में मुह घुसा के तो ना चूमो !! 

ज़रा तमीज़ से चूमो 
दूर दूर रह के चूमो 
लिहाज़ कर के चूमो 
हिज़ाब कर के चूमो 
हिसाब कर के चूमो 
बिना आवाज़ के चूमो 
बत्ती बुझा के चूमो 
आँख झुका के चूमो 

और चूमने के बाद 
परवरदिगार से कहो - "सॉरी"
और उसे वादा करो, कि
इस घटिया हरकत की भरपाई को 
कुछ क़त्ल,
बलात्कार
और फाँसियाँ 

हमारे ज़ेहन पर उधार रहेंगे !!

चिठ्ठी

तुम डाकिए की तरह आओ 

एक सुर्ख सी चिट्ठी 
मेरे लाल होंठों के 
लेटर बक्स पर 
अपने होंठों से डाल जाओ 

डाकघर की "मुहर" 
चिठ्ठी के बजाय 
मेरे माथे पर लगा देना 

मैं समझूंगा कि 
चिट्ठी 
ठीक पते पर पहुँची

ऐहतियातन

गौरतलब बात है कि 

पंछियों ने 
ऐहतियातन 
आसमानों में 
मील के पत्थर नहीं बोए  

और इंसानों ने 
ज़मीन पर 
भतेरे पत्थर 
एक-एक मील बाद 
बो कर, रंग पोत दिए 


दीवानगी में 
मौजूँ, 
बेहिसाब उड़ते वक्त 
पंछी, हँसते होंगे

देखकर, 

कि इंसान रेंगता भी है 
तो गिन-गिन कर  

---

एक दिन
उनमे से ही, 
एक पंछी 
मुझसे बोला 
कि मेरे यार 
अजीब इत्तफ़ाक़ है, कि  

आसमान से देखने पर 
मील की पत्थरों का हुलिया 
कब्रिस्तान में धँसे  
मुर्दों के नेम-प्लेट वाले 
पत्थरों से 

हू-ब-हू मिलता है 

क्या ये 
चितकबरी सी सडकें
तुम्हारी उड़ानों का 
मुर्दाघर हैं ?


गौरतलब बात है...

शबबाख़ैर

अमाँ छोड़ो मियाँ 
तुम्हे, मैं
समझ नहीं आऊंगा 

"औक़ात" भी कोई चीज़ होती है 

और 
ख़ुदा-ना-खाँसता
आ ही गया तो 

ख़ामखाँ 

मेरी ही क़ाबिलियत 
रंडी बनके 
शर्मिंदा होगी 

बेहतर होगा, कि, 
तू मेरा भरम रख ले 
और मैं रखूँ तेरा 

शबबाख़ैर

क़िताब

तुम्हारी छाती का उभार 

चेहरे पर 
एक क़िताब की मानिंद 
ढक लेना चाहता हूँ

जिसके पन्ने 
बुल्ले शाह के कलाम 
और बशीर की गज़लों से

बेइंतहा महकते हैं  

बोतलों में !

ज़हन में कैद हैं, जितने भी, सवालात 
एक-एक का है जवाब, बोतलों में !
नफ़ा-नुकसाँ, कहाँ, कब, क्यों 
एक-एक का है हिसाब, बोतलों में !!

एपोकलिप्स

आज बहोत से लोग 
चैन की साँस लेंगे 
कि दुनिया एक बार फिर 
करतब-कलाबाजी दिखाकर 
एक और "एपोकलिप्स" 
"डक" कर गई 

आपके मुगालते 
और आपकी खुशफहमी 

आपको मुबारक हो !!

Photocopy

पिया सों, "डिट्टो" रंग रंगाई, जी 
Ctrl 'सी' Ctrl 'वी'

पिया खड़े भौचक्के 
जैसे हम हों चोर उचक्के 

पिया भए जज़बाती 
उनकी हो गई फोटो कापी

घूम रहे "फ्र्स्टाए" 
बूझें किसनूँ रपट लिखाएं !!

मुक़म्मल नाम

आदमी का नाम,

ज़िन्दगी में 
बस पांच दफ़े
"मुक़म्मल" होता है. 

पहली दफ़ा तब, 
जब उसकी माँ, उसे 
लरज़ती हंथेलियों में उठाकर 
पहली मर्तबा उसके नाम से पुकारती है 
और नाम का एक-एक लव्ज़ 
आजू-बाजू की एक-एक मातरा के साथ 
आंसुओं से धुल-पूछ कर 
सरकार की "मुहर" सा बन जाता है.

दूसरी दफ़ा तब, 
जब वो खुद स्लेट पर 
अपनी पोनी-पोनी उँगलियों में 
सफ़ेद-सफ़ेद खड़िया फंसा कर 
अपना जटिल सा नाम 
गणित के समीकरण की तरह 
आड़ा तिरछा सा लिखता है 
और वो स्लेट पर 
अध्यापक की नज़र में 
"हेन्स प्रूव्ड" की मुक़म्मल शकल ले लेता है. 

तीसरी दफ़ा तब,
जब उसकी महबूबा, उसका नाम 
'बूझो-तो-जानें' के खेल में
उसकी पीठ पर
कठिन सी
लाल-बुझक्कड़ पहेली की तरह लिखती है 
और वो उसका जवाब -
"बुद्धू अपना नाम भी नहीं जानते" 
कहकर देती है.


चौथी दफा तब,
जब स्कूल में उसकी बेटी 
अंगरेजी के पर्चे में बिना स्पेलिंग गडबडाए 
लिखती है कि उसका नाम 
कोठी की नेम प्लेट की तरह
माई फादर्ज़ नेम इज़
"मिस्टर फलाँ-फलाँ" में, सँजोकर.

और पांचवी दफ़ा तब, 
जब बड़ी-भारी भीड़ में 
गठरी से सकुचाए
उसके बाप का परिचय 
उसकी फूली छाती से भी
चौड़े हो चुके
'बेटे के नाम' से कराया जाता है. 


जिंदगी में 
बस पांच दफ़े
"मुक़म्मल" होता है ...

आदमी का नाम...