Sunday 4 October 2020

दलितों की लडकियां


वो इतनी अछूत हैं कि कुआँ छू दें तो गाँव 

कुएँ का पानी नहीं पीता

वो कुएँ से दूर खड़ी, मुह में आँचल दाबे 

इंतज़ार करती रहती हैं 

कि ऊंची जात वाले पानी भर ले जाएँ 

और उनका पानी पवित्र बना रहे 

वो इतनी अछूत हैं 

लेकिन इतनी भी नहीं कि ऊँची जात वाले 

उनके गले में दांत गड़ाकर

उनका बलात्कार न कर पाएं


वो इतनी अछूत हैं कि उनकी चिता को 

उनके परिवार वाले भी छू न पाए 

वो इतनी अछूत हैं कि उनके शव को 

उनकी माँ आखिरी बार देख भी न पाई

वो जलती रहीं रात के अँधेरे में 

और सूरज की रौशनी भी छू न पाई 

उनकी चिता को 

वो इतनी अछूत हैं   

लेकिन इतनी भी नहीं कि ऊँची जात वालों ने  

उन्हें छूने की तलब में 

उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ डाली 


वो इतनी अछूत हैं कि उनके गाँव में 

कोई नहीं घुस सकता 

न मीडिया, न कैमरा, न सत्ता 

न बिना इजाज़त हवा, न पत्ता 

वो इतनी अछूत हैं उनका गाँव 

किले में बदल दिया गया है 

और पूरी दुनिया से दिया गया है काट 

वो इतनी अछूत हैं 

लेकिन इतनी भी नहीं कि ऊँची जात वाले 

उनकी जबान काट देते हैं 


वो इतनी अछूत हैं कि हमारे शहर 

आज तक उनके गाँव नहीं पहुंचे 

न ही पहुँची सड़क और बिजली 

न ही पहुंचा विकास उनके पास 

न आँख पर पट्टी वाला कानून 

साथ में डेमोक्रेसी लेकर 

वो इतनी अछूत हैं 

लेकिन इतनी भी नहीं कि भारत में 

हर दिन दस दलित लड़कियों का  

बलात्कार न हो सके 


वो दलितों की लडकियां 

यहाँ इतनी अछूत हैं 

कि अपनी कटी जबान और टूटी रीढ़ की हड्डी लेकर 

वो चली गईं हैं, ना उम्मीद, 

सब छोड़ कर 


अपना गाँव, अपना दुआर 

अपना बाबुल, अपने खेत 

अपनी सहेलियां, अपनी गुड़ियाँ

अपने त्यौहार, अपने झूले 

अपना देश, अपना संविधान 

छोड़कर, वहाँ, 


जहाँ कोई उनसे 

नहीं पूछेगा उनकी जात

और नहीं पूछेगा कि वो क्या लगाती हैं

अपने नाम के आगे 


उन्हें स्वर्ग नहीं भोगना है 

उन्हें वो नर्क भी चलेगा 

जहाँ के कुँए से सब साथ पानी भर सकें