Saturday 7 November 2015

घर से दफ़्तर का रास्ता

घर से दफ़्तर के रास्ते में
कनेर की फूलों की एक क्यारी है
जिसमे रोज़ाना नए फूल खिलते हैं,
पर मैं उनके उगने-खिलने का हिसाब
उँगलियों पर नहीं रख पता
ये भी नहीं देख पाता कि
उनकी पंखुड़ियों पर उकड़ूँ बैठी तितलियाँ
उनमें क्या झाँकती फिरती हैं
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से दफ़्तर के रास्ते में
मेट्रो स्टेशन के किनारे, एक सपेरा बैठता है,
मुझे नहीं मालूम पड़ता कि आज साँप
दस का नोट निगल गया होगा या पांच का
करतब में बजी होगी ताली
तो कितनी भरी होगी थाली
मैं देख नहीं पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से दफ़्तर के रास्ते में
रोज़ घर से मिसकॉल आता है
घर जो कानपुर में है, वहां से
दिल्ली में ठण्ड पड़ रही है ?
या हो रही है बारिश
खाना खा रहा हूँ, ढंग से
और पी रहा हूँ दूध?
मैं इसका जवाब नहीं दे पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से दफ़्तर के रास्ते में
सोसाइटी का गार्ड रोज़ नमस्ते बोलता है
आठ महीने से बोल रहा है शायद
वो दरवाज़ा झट से तीन सेकेण्ड में खोल देता है
फिर अच्छा सा'ब कह के
न जाने क्या जानना चाहता है
या नहीं भी जानना चाहता हो शायद
मैं इसकी पड़ताल नहीं कर पाता,
और नमस्ते का जवाब भी नहीं दे पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से दफ़्तर के रास्ते में
एक अधूरी नज़्म है
जो पेट से हो शायद
मुझे घूर-घूर कर देखती है
पर मैं डरता हूँ, इस कदर
कि वो आस से न हो शायद,
उसे भी, आँखों में आँखें डालकर
मैं देख नहीं पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से दफ़्तर के रास्ते में
और भी रास्ते हैं,
जो दफ़्तर नहीं जाते

पहाड़, नदी, जंगल
सिनेमा, सर्कस, थियटर
दोस्त, माशूक़ा, ज़िंदगी
खेत, दरिया, बीहड़
और न जाने कहाँ-कहाँ तक जाते होंगे

उनके माइलस्टोन, देख कर भी
मैं अनदेखा कर जाता हूँ
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से, सीधा, दफ़्तर पहुंचना
कितना अलग है
घर से, कहीं भी और पहुँचने से

सीधा कहीं भी पहुंचना
कितना अलग है
कहीं भी,
सीधा न, पहुँचने से !