मैं खोजता हूँ तुम्हें,
जैसे एक मजदूर,
दिन भर की मेहनत के बाद
बीड़ी का बण्डल खोजता है
एक क़श में फ़कीर हो जाने के लिए
दो घड़ी अमीर हो जाने के लिए
तुम्हें सुनने में ‘अन-रोमैंटिक’ लगेगा
पर तुम मेरे लिए महज़ पताका छाप बीड़ी हो
मैं खोजता हूँ तुम्हें,
जैसे एक किसान
महीना भर बुवाई के बाद
मूसलाधार सावन खोजता है
बूँद का एक-एक सिक्का बटोरकर
साहूकार हो जाने के लिए
तुम्हें सुनने में ‘अन-रोमैंटिक’ लगेगा
पर तुम मेरे लिए महज़ सालाना मानसून हो
मैं खोजता हूँ तुम्हें,
जैसे एक इंजीनियर
हफ्ता भर घिसाई के बाद
फ्राइडे की बियर खोजता है
दो-एक रात को ही सही, नशे में
ख़ुद अपना बॉस हो जाने के लिए
तुम्हें सुनने में ‘अन-रोमैंटिक’ लगेगा
पर तुम मेरे लिए महज़ किंगफिशर स्ट्रौंग हो
मैं खोजता हूँ तुम्हें
जैसे एडम और ईव
ख़ुदा से नज़र बचाकर
ईडेन का एप्पल खोजते हैं
बच्चलन हो जाने के लिए
इश्क़-हराम फ़रमाने के लिए
तुम्हें सुनने में ‘अन-रोमैंटिक’ लगेगा
पर तुम मेरे लिए महज़ इक सेब हो
मैं खोजता हूँ तुम्हें
जैसे एक बच्चा
माँ से नज़र बचाकर
खड़िया, मट्टी, कूड़ा खोजता है
मुट्ठी भर खा लेने के लिए
माँ को यूँ ही सताने के लिए
तुम्हें सुनने में ‘अन-रोमैंटिक’ लगेगा
पर तुम मेरे लिए महज़ मुट्ठी-भर-मिट्टी हो
मैं खोजता हूँ तुम्हें
जैसे ये मधुमक्खियाँ
चक्कर-चक्कर, दिन-भर
बाग-बगीचे-फूल खोजती हैं
शहद का वो छत्ता बनाने के लिए
जिसे कल कोई और तोड़ ले जाएगा
तुम्हें सुनने में ‘अन-रोमैंटिक’ लगेगा
पर तुम मेरे लिए महज़ कोई-सा-भी फूल हो
तुम्हें सुनने में ‘अन-रोमैंटिक’ लगेगा
पर तुम्हें बस वैसे ही खोजता हूँ जैसे
इंसान जुराबें खोजते हैं
गंजहे अफ़ीम खोजते हैं
समंदर रेत खोजते हैं
मेंढक बरसात खोजते हैं
चूहे कपड़े-कपास खोजते हैं
कहीं, कभी, यूँ-ही
इस आइस-पाइस के
सिलसिले में
मिल जाओ न
कि मैं
खोजता हूँ
तुम्हे
इस-क़दर !
बहुत सुन्दर...सार्थक बिम्बों का सटीक चित्रण किया है...कविता ऐसी भी लिखी जा सकती है...महबूब को बीड़ी,मानसून,किंगफिसर,मिट्टी,सेब,कपड़े-कपास सब कुछ कहा जा सकता है...बशर्ते कि उनकी उपयोगिता आपकी कविता के मानिन्द हो...बहुत बधाई मित्र...मुझे अच्छी लगी आपकी कविता...!
ReplyDeleteनिखिल जी, आपकी "अन रोमैंटिक " खोज दिल को छूने वाली रचना है, यूँ ही लिखते रहिए।
ReplyDeleteबहुत उम्दा!
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