Saturday 2 December 2017

कॉकरोच और प्रेम पे पड़े लोग

मुझे ज़मीन पर रेंगते कॉकरोचों को
औंधे मुह पलट देना
और उन्हें बिलबिलाते देखना
बड़ा सुकून देता है
अच्छा लगता है
देखकर
कि प्रेम में पड़े लोगों जितना
बेबस जानवर
कोई और भी होता है
कॉकरोच और
प्रेम पे पड़े लोग
कभी नहीं मरते
वो सह जाते हैं
बड़े से बड़ा नयूक्लियर अटैक
और उम्मीद की अफ़ीम खाकर
जी जाते हैं, जैसे तैसे, ये ज़िंदगी
अपनी ज़िद में
बिलबिलाते
कुलबुलाते
तिलमिलाते
छटपटाते

Tuesday 20 June 2017

चींटियाँ

चींटियाँ
दुनिया की सबसे छोटी
चलती-फिरती
प्रेम की कविताएँ हैं.

Friday 16 June 2017

तुम आ जाओ

तुम आ जाओ,
कि जैसे छुट्टी की घंटी बजे
और बच्चें ख़ुशी से भागते आएं 
 मटकते, खिलिखाते, किलकिलाते, उतराते
पैंट की बद्धी, बुस्शर्ट, बस्ता संभाले
स्कूल की हज़ार गप्पी बात लिए,
माँ के गले लग जाएं
तुम आ जाओ,
कि जैसे सालों की देरी के बाद
अदालत का फ़ैसला आए
और किसी सूदखोर से लड़-झगड़कर
एक बेचारे सच्चे आदमी को
 जनम भर की फँसी हुई पूँजी, ज़मीन
 असल और सूद के साथ मिल जाए
तुम आ जाओ
कि जैसे पहाड़ों में सीना फुलाकर
कोई महबूब का नाम चिल्लाए
उसकी आवाज़ गूंज कर लौट आए
और सब ओर से उस पर बे-इन्तहा बरसे
बिखरे, टूटे, छिटके, चिपटे
और उससे कस के लिपट जाए
तुम आ जाओ
कि जैसे आँगन में बिन-पूछे-बुलाए
खोई हुई गौरैया चली आए
अपनी चोंच से गर्दन काढ़े, तिनका खाए,
साँस भरे और ऊन का गुल्ला हो जाए
बुद्धू जैसी घंटों घूरे
चूं-चूं कर के बोले-बताए
तुम आ जाओ
कि जैसे किसी को बे-मौसम बुखार आए
और देह के रोम-रोम में समां जाए
उसे तपाए, तोड़े, कपाए, सताए
माथे तक चढ़ जाए
दवा, डाक्टर, जंतर-तंतर, होमियो-एलो
सबको धता बताए
तुम आ जाओ
कि जैसे होली में गाँव के घर-घर
‘जोगीरा-सा-रा' गाती
टोली में झूमती फ़ाग आए
 भांग, अबीर, मंजीरा, ढोलक
झांझर, गुझिया, कान्हा, राधा,
पंचम सुर में धैवत गाए
तुम आ जाओ
जैसे किसान के खेत में मूसलाधार बारिश आए
मजदूर की आँख में नीद पसर आए
सरहद से किसी का फ़ौजी आए
मौसम की फसल में बाली आए
बारिश में भुट्टे की महक आए
बच्चे को छुट्टे की खनक आए
सुबहों को सूरज की धनक आए
तुम आ जाओ
कि जैसे तुम हर बार
आती हो
और तुम्हारा आना
हिंदी की सबसे ख़ूबसूरत क्रिया
बन जाती है !

Tuesday 9 May 2017

स्पैरो

मेरे घर में एक गौरैया आती थी
बड़े अधिकार से, फुदककर,
आँगन तलक टहल जाती थी
मैं भले कुछ बोलूँ-न-बोलूँ
वो फुदकती रहती थी, यूं कि जैसे,
मेरी बेटियाँ लंगड़ी टांग से स्टापू खेलती थीं

वो आँगन भर की हवा सीने में भरकर
फूल कर ऊन का गुल्ला हो जाती थी
और काढती रहती थी चोंच से गर्दन
कि जैसे कोई बुढ़िया
सलाइयों से बिन रही हो स्कार्फ़ या स्वेटर

मैं गुनगुनी दोपहरों में चेहरे पर अन्गौंछा ढाँपकर
धूप बटोरा करता था और उसके साथ अखबार पढ़ा करता
ख़बरें समझ न आने पर वो गर्दन मटकाकर
चेहरे बनाया करती थी
 मैं जब नाखून काटता और वो छिटककर उस तरफ़ गिर जाता
तो वो उसे कीड़ा समझकर खाने भी दौड़ती
और मैं उसके बुद्धू बनने पर बे-तहाशा हँसता

इधर बीच मैं तमाम दिनों से आँगन में बैठ कर
अखबार पढने नहीं जा पाया

मेरे बच्चों ने एक मोबाइल दिला दिया था
 जिसे ऊँगली से रगड़ दो तो वो हर दफ़ा
वही अख़बार वाली ख़बरें सुना देता था
 बच्चे भी आँगन में खेलने नहीं जाते
वो मोबाइल में दिन भर एक खेल खेला करते हैं
वो न मालूम क्यों उसे ‘एंग्री बर्ड्स’ कहते हैं

उन्होंने चिड़िया की शक्ल वाली एक ऐप भी डाली है 
और उस पर मेरी बेटी ने कल एक ट्वीट किया है -
“Sparrows have gone extinct”
मैं ये देखकर सहम गया हूँ कि
उस ऐप वाली चिड़िया की शक्ल
गौरैया से हू-ब-हू मिलती है
और मैं भागकर बच्चों से पूछता हूँ -
“ये वही गौरैया है क्या” ?
मगर वो ध्यान नहीं देते

वो बस खेल में मगन, स्वाइप करते रहते हैं
और हर एक स्वाइप के साथ
उनके मोबाइल की स्क्रीन पर कुछ ‘एंग्री बर्ड्स'
दिन भर सर पटकती रहती हैं
और यकायक ऐसे ग़ायब हो जाती हैं, कि जैसे
वो कभी थी ही नहीं !!

Thursday 30 March 2017

बम्बई

जानती हो तुम?
बम्बई भागता रहता है
हरदम, दर बदर
फिर भी न हाँफता,
 ख़ुदा न खाँसता,
दौड़ता रहता है, यहाँ हर रास्ता,
गलियों को चीरकर.
ट्रेनें छूटती हैं कि जैसे
छूट गई हो तमंचों से गोलियां
या गेंदों के पीछे बच्चे
जो चले जाएँगे फ़लक तक,
ग़र जो रोके नहीं गए, पुकार कर.
तुम आओगी तो देखना,
कि आदमी, यहाँ यूँ निकल जाता है
आदमी से कंधे रगड़कर, छीलकर
 फिर भी कोई पीछे नहीं देखता
बस बुहार देता हैं कन्धा
शर्ट से धूल झाड़ कर.
रातों रात नहीं हैं लोग सोते
कि जैसे सोना कोई अपशकुन हो
कहते हैं कि ये शहर
सदियों से नहीं है सोया,
यहाँ भटकते हैं शिवाजी
म्यान में तलवार लेकर.
यहाँ लोग, माले पर माला, जोड़कर
इतनी ऊंची इमारतें, इतनी जल्दी
कुछ यूँ बना देते हैं
कि जैसे पिट्ठू खेलते वक़्त
हम बना देते थे फटाफट
पत्थरों के ऊंचे टावर.
तुम आओगी तो देखना
यहाँ बिजली से तेज चलने वाली
लम्बोर्गनी और फरारियां हैं
जो फ़रार हैं कब से,
फिर भी बस रेंग ही पाती हैं
किसी केंचुए की तरह
लम्बे ट्रैफिक जामों में फंसकर.
तुम आओगी तो देखना,
तुम भी हैरान हो जाओगी,
देखकर, कि यहाँ सब लोग
जल्दी में हैं, इतना
फिर भी समय पर
कोई, नहीं पहुँचता, यूँ भागकर.
बम्बई भागता रहता है
इस क़दर,
फिर भी, इक ज़माने से
कहीं भी तो पहुँच नहीं रहा है.
कि ये जितना चलता-बढ़ता है,
उसे उतने ही क़दम पीछे
धकेल देता है, समंदर
लहरों के झाड़ू से झाड़कर.
तुम आओगी तो देखना
कि यहाँ नहीं है वो सुकून
जो रात भर मिलता था
तुम्हारी बाहों में
 कि जब रुक जाता था सब कुछ
तुम्हारी गोदी में लेटकर
तुम आओगी तो देखना
कि कभी न रुकने वाली
बम्बई में भी
मैं
रुक
गया
हूँ
तुमको
देखकर
ख़ुशी से
चौंक कर