Tuesday 7 March 2023

त्रासदी


वैसे तो दुनिया मे तमाम त्रासदियाँ हुईं 

न जाने कितनी ही स्पीशीज़ लुप्त हो गईं  

कितने ही युद्ध लड़े गए 

मुगल, मंगोल आए, और सब कछ रौंद कर चले भी गए 

लेकिन मेरे जीवन में सबसे बड़ी त्रासदी तब हुई, 

जब मुझे इल्म हुआ कि मैं और तुम सयाने हो गए !!   


जब हमने ये जान लिया कि किताबों मे दबाकर रखे गए 

गौरैया के टूटे, लंगड़े पंखों से  

एक दिन नई गौरैया नही निकल आती 

जब हमने जाना कि आँख से टूटी पलक की काली कतरन 

हथेली पर रखके, छाती भरकर, फूक देने से 

हम तुम हमेशा के लिए एक दूसरे के नही हो जाएँगे  

हमने जाना कि भूख इंसान से पहले 

उसके भीतर प्यार का एक एक कतरा मार देती है 


इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि एक दिन तुम सयानी हो गई

और तुम्हारी देखा देखी, मैं भी हो गया सयाना 

हमें जादू-वादू बेमानी लगने लगा 

और हम सपने देखने से पहली, हर बार कहने लगे - 

"ऐसा सचमुच मे कहाँ होता है यार"


एक वक्त था जब तुम रोज़ाना, शिमला भाग कर 

वहां किसी खाई में बस जाने का मास्टर प्लान बनाती थी 

और मैं उसके लिए जोड़ता था पचास के सीले हुए नोट   

जब मैं रात-रात जाग कर लिखता था तुम्हारे लिए कविताएं

और एक छोटा सा कमरा, हमें चार बेडरूम किचेन के 

आलीशान घरों से कई गुना बड़ा लगता था 

जब सी-व्यू-अपार्टमेंट, न तुम्हे चाहिए था न और मुझे 

क्योंकि मेरे घर में थी, तुम्हारे आँखों की समूची डल झील 

और तुम्हारे पास था मेरी बाहों भर नीला आकाश 


इतिहास की किताबों मे जब इतिहासकार 

दर्ज़ कर रहे होंगे सभी त्रासदियाँ

क्या कोई दर्ज़ करेगा हमारे सयाने हो जाने की त्रासदी? 


क्या किसी किताब में खून से लिखेंगे ये इतिहासकार?

कि एक तूफ़ान से भी तेज बहने वाली ज़िद्दी लड़की 

सिमटकर बंद हो गई, समझदारी की बौनी डिबिया मे 

और दुनिया को जूते की नोक पर रखने वाला बेखौफ़ लड़का 

'यस सर - यस सर' करके, बाकी की ज़िंदगी 

मिमियाता रहा काँच के खौफनाक दफ्तर में !!

Sunday 4 October 2020

दलितों की लडकियां


वो इतनी अछूत हैं कि कुआँ छू दें तो गाँव 

कुएँ का पानी नहीं पीता

वो कुएँ से दूर खड़ी, मुह में आँचल दाबे 

इंतज़ार करती रहती हैं 

कि ऊंची जात वाले पानी भर ले जाएँ 

और उनका पानी पवित्र बना रहे 

वो इतनी अछूत हैं 

लेकिन इतनी भी नहीं कि ऊँची जात वाले 

उनके गले में दांत गड़ाकर

उनका बलात्कार न कर पाएं


वो इतनी अछूत हैं कि उनकी चिता को 

उनके परिवार वाले भी छू न पाए 

वो इतनी अछूत हैं कि उनके शव को 

उनकी माँ आखिरी बार देख भी न पाई

वो जलती रहीं रात के अँधेरे में 

और सूरज की रौशनी भी छू न पाई 

उनकी चिता को 

वो इतनी अछूत हैं   

लेकिन इतनी भी नहीं कि ऊँची जात वालों ने  

उन्हें छूने की तलब में 

उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ डाली 


वो इतनी अछूत हैं कि उनके गाँव में 

कोई नहीं घुस सकता 

न मीडिया, न कैमरा, न सत्ता 

न बिना इजाज़त हवा, न पत्ता 

वो इतनी अछूत हैं उनका गाँव 

किले में बदल दिया गया है 

और पूरी दुनिया से दिया गया है काट 

वो इतनी अछूत हैं 

लेकिन इतनी भी नहीं कि ऊँची जात वाले 

उनकी जबान काट देते हैं 


वो इतनी अछूत हैं कि हमारे शहर 

आज तक उनके गाँव नहीं पहुंचे 

न ही पहुँची सड़क और बिजली 

न ही पहुंचा विकास उनके पास 

न आँख पर पट्टी वाला कानून 

साथ में डेमोक्रेसी लेकर 

वो इतनी अछूत हैं 

लेकिन इतनी भी नहीं कि भारत में 

हर दिन दस दलित लड़कियों का  

बलात्कार न हो सके 


वो दलितों की लडकियां 

यहाँ इतनी अछूत हैं 

कि अपनी कटी जबान और टूटी रीढ़ की हड्डी लेकर 

वो चली गईं हैं, ना उम्मीद, 

सब छोड़ कर 


अपना गाँव, अपना दुआर 

अपना बाबुल, अपने खेत 

अपनी सहेलियां, अपनी गुड़ियाँ

अपने त्यौहार, अपने झूले 

अपना देश, अपना संविधान 

छोड़कर, वहाँ, 


जहाँ कोई उनसे 

नहीं पूछेगा उनकी जात

और नहीं पूछेगा कि वो क्या लगाती हैं

अपने नाम के आगे 


उन्हें स्वर्ग नहीं भोगना है 

उन्हें वो नर्क भी चलेगा 

जहाँ के कुँए से सब साथ पानी भर सकें 

Sunday 22 December 2019

मुसलमानों का मोहल्ला

मेरा इक दोस्त अक्सर कहता था, कि ये
कौमी एकता की बातें
बस कहने में अच्छी लगती हैं.
कहता था, कि तुम कभी
मुसलमानों के मोहल्ले में
अकेले गए हो ?
कभी जाकर देखो. डर लगता है.
वो मुसलमानों से बहुत डरता था
हालांकि उसे शाहरुख़ खान बहुत पसंद था
उसके गालों में घुलता डिम्पल
और उसकी दीवाली की रिलीज़ हुई फ़िल्में भी
दिलीप कुमार यूसुफ़ है, वो नहीं जानता था
उसकी फिल्में भी वो शिद्दत से देखता था
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
वो इंतज़ार करता था आमिर की क्रिसमस रिलीज़ का
और सलमान की ईदी का
गर जो ब्लैक में भी टिकट मिले
तो सीटियाँ मार कर देख आता था
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
वो मेरे साथ इंजीनियर बना
विज्ञान में उसकी दिलचस्पी इतनी कि
कहता था कि अब्दुल कलाम की तरह
मैं एक वैज्ञानिक बनना चाहता हूँ
और देश का मान बढ़ाना चाहता हूँ
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
वो क्रिकेट का भी बड़ा शौक़ीन था
ख़ासकर मोहोम्मद अज़हरुद्दीन की कलाई का
ज़हीर खान और इरफ़ान पठान की लहराती हुए गेंदों का
कहता था कि ये तीनों जादूगर हैं
ये खेल जाएं तो हम हारें कभी न
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
वो नरगिस और मधुबाला के हुस्न का मुरीद था
उन्हें वो ब्लैक एंड व्हाईट में देखना चाहता था
वो मुरीद था वहीदा रहमान की मुस्कान का
और परवीन बाबी की आशनाई का
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
वो जब भी दुखी होता था तो मुहम्मद रफ़ी के गाने सुनता था
कहत था कि ख़ुदा बसता है रफ़ी साहब के गले में
वो रफ़ी का नाम कान पर हाथ लगाकर ही लेता था
और नाम के आगे हमेशा लगाता था साहब
अगर वो साहिर के लिखे गाने गा दें
तो ख़ुशी से रो लेने का मन करता था उसका
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
वो हर छब्बीस जनवरी को अल्लामा इकबाल का
सारे जहाँ से अच्छा गाता था
कहता था कि अगर
गीत पर बिस्मिल्ला खान की शहनाई हो
और ज़ाकिर हुसैन का तबला
तो क्या ही कहने !
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
उसे जब इश्क़ हुआ तो लड़की से
ग़ालिब की ग़ज़ल कहता
फैज़ के चंद शेर भेजता
उन्ही उधार के उर्दू शेरों पर पर मिटी उसकी महबूबा
जो आज उसकी पत्नी है
वो इन सब शायरों से नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था
बड़ा झूठा था मेरा दोस्त
बड़ा भोला भी
वो अनजाने ही हर मुसलमान से
करता था इतना प्यार
फिर भी न जाने क्यों कहता था, कि वो
मुसलमानों से डरता था
वो मुसलमानों के देश में रहता था
ख़ुशी ख़ुशी, मोहोब्बत से
और मुसलमानों के न जाने कौन से मोहल्ले में
अकेले जाने से डरता था
दरअसल
वो भगवान् के बनाए मुसलमानों से नहीं डरता था
शायद वो डरता था, तो
सियासत, अख़बार और चुनाव के बनाए
उन काल्पनिक मुसलमानों से
जो कल्पना में तो बड़े डरावने थे
लेकिन असलियत में ईद की सेंवईयों से जादा मीठे थे

Thursday 19 December 2019

केलाइडोस्कोप

तुम उनकी बंदूकों में फूल टांक देना

और उनकी लाठियों के संगीत में
लय मिलाकर जन-गण-मन का गीत गाना

तुम रंगीन कंचे भरकर, उनकी तोपों को 
सुन्दर केलाइडोस्कोप बना देना
कि उसमे वो ख़ुद झांकें तो उन्हें
बारूद की जगह प्रेम के हज़ार रंग दिखें

देखना ! जो तुम मुस्कुरा कर
कस कर गले लगाओगे
तो वो भी, वर्दी उतारकर
बुद्ध हो जाएँगे

Tuesday 10 December 2019

घृणा और प्रेम

जब वो बच्चे जन्मे तो बस हँसते, खिलखिलाते
प्रेम करते, मुस्कुराते
सबको बाहों में भरते, चूमते
किलकारी मार कर दौड़ते
आकर किसी की भी गोद में बैठ जाते
और उसकी छोटी ऊँगली पकड़ कर
किसी के साथ भी चल देते, मुस्कुराते 

वो ऊँगली का रंग नहीं देखते थे
न ही पूछते थे ऊँगली की जात और मज़हब
क्योंकि उन्हें उंगली की ऊष्मा पसंद थी
और पसंद था उनकी मुट्ठी में एक अदद ऊँगली का होना

वो बच्चे सब कुछ करते थे
बस किसी से घृणा नहीं करते थे
क्योंकि कोई भी बच्चा
जन्म से घृणा करना नहीं सीखता
वो जन्मता है बस प्रेम के साथ

प्रेम एक जन्मजात गुण है
और घृणा मानव निर्मित है
घृणा हम यहीं सीखते हैं
और यहीं छोड़ कर चले भी जाते हैं
क्योंकि उसका भार
चार अदद कंधे और पूरा मोहल्ला मिललकर भी
अर्थी पर नहीं उठा पाता

जब हम मरते हैं तो घृणा से हमारी भौहें तनी नहीं होतीं
हमारे माथे पर क्रोध के बल की रेखाएं नहीं होतीं 
हमारे आँखें गुस्से से लाल नहीं होतीं
जब हम मरते हैं
तो बस हमारी मुट्ठी बंध जाती है
उसी छोटी ऊँगली की उष्मा की आस में

हम घृणा यहीं छोड़ कर
चले जाते हैं बौद्ध होकर
एक शांत, सौम्य, प्रेम में पड़ा चेहरा लेकर
वहां,
जहाँ से हमें भेजा गया था,
प्रेम करने. हंसने. खिलखिलाने.

Saturday 2 December 2017

कॉकरोच और प्रेम पे पड़े लोग

मुझे ज़मीन पर रेंगते कॉकरोचों को
औंधे मुह पलट देना
और उन्हें बिलबिलाते देखना
बड़ा सुकून देता है
अच्छा लगता है
देखकर
कि प्रेम में पड़े लोगों जितना
बेबस जानवर
कोई और भी होता है
कॉकरोच और
प्रेम पे पड़े लोग
कभी नहीं मरते
वो सह जाते हैं
बड़े से बड़ा नयूक्लियर अटैक
और उम्मीद की अफ़ीम खाकर
जी जाते हैं, जैसे तैसे, ये ज़िंदगी
अपनी ज़िद में
बिलबिलाते
कुलबुलाते
तिलमिलाते
छटपटाते

Tuesday 20 June 2017

चींटियाँ

चींटियाँ
दुनिया की सबसे छोटी
चलती-फिरती
प्रेम की कविताएँ हैं.

Friday 16 June 2017

तुम आ जाओ

तुम आ जाओ,
कि जैसे छुट्टी की घंटी बजे
और बच्चें ख़ुशी से भागते आएं 
 मटकते, खिलिखाते, किलकिलाते, उतराते
पैंट की बद्धी, बुस्शर्ट, बस्ता संभाले
स्कूल की हज़ार गप्पी बात लिए,
माँ के गले लग जाएं
तुम आ जाओ,
कि जैसे सालों की देरी के बाद
अदालत का फ़ैसला आए
और किसी सूदखोर से लड़-झगड़कर
एक बेचारे सच्चे आदमी को
 जनम भर की फँसी हुई पूँजी, ज़मीन
 असल और सूद के साथ मिल जाए
तुम आ जाओ
कि जैसे पहाड़ों में सीना फुलाकर
कोई महबूब का नाम चिल्लाए
उसकी आवाज़ गूंज कर लौट आए
और सब ओर से उस पर बे-इन्तहा बरसे
बिखरे, टूटे, छिटके, चिपटे
और उससे कस के लिपट जाए
तुम आ जाओ
कि जैसे आँगन में बिन-पूछे-बुलाए
खोई हुई गौरैया चली आए
अपनी चोंच से गर्दन काढ़े, तिनका खाए,
साँस भरे और ऊन का गुल्ला हो जाए
बुद्धू जैसी घंटों घूरे
चूं-चूं कर के बोले-बताए
तुम आ जाओ
कि जैसे किसी को बे-मौसम बुखार आए
और देह के रोम-रोम में समां जाए
उसे तपाए, तोड़े, कपाए, सताए
माथे तक चढ़ जाए
दवा, डाक्टर, जंतर-तंतर, होमियो-एलो
सबको धता बताए
तुम आ जाओ
कि जैसे होली में गाँव के घर-घर
‘जोगीरा-सा-रा' गाती
टोली में झूमती फ़ाग आए
 भांग, अबीर, मंजीरा, ढोलक
झांझर, गुझिया, कान्हा, राधा,
पंचम सुर में धैवत गाए
तुम आ जाओ
जैसे किसान के खेत में मूसलाधार बारिश आए
मजदूर की आँख में नीद पसर आए
सरहद से किसी का फ़ौजी आए
मौसम की फसल में बाली आए
बारिश में भुट्टे की महक आए
बच्चे को छुट्टे की खनक आए
सुबहों को सूरज की धनक आए
तुम आ जाओ
कि जैसे तुम हर बार
आती हो
और तुम्हारा आना
हिंदी की सबसे ख़ूबसूरत क्रिया
बन जाती है !

Tuesday 9 May 2017

स्पैरो

मेरे घर में एक गौरैया आती थी
बड़े अधिकार से, फुदककर,
आँगन तलक टहल जाती थी
मैं भले कुछ बोलूँ-न-बोलूँ
वो फुदकती रहती थी, यूं कि जैसे,
मेरी बेटियाँ लंगड़ी टांग से स्टापू खेलती थीं

वो आँगन भर की हवा सीने में भरकर
फूल कर ऊन का गुल्ला हो जाती थी
और काढती रहती थी चोंच से गर्दन
कि जैसे कोई बुढ़िया
सलाइयों से बिन रही हो स्कार्फ़ या स्वेटर

मैं गुनगुनी दोपहरों में चेहरे पर अन्गौंछा ढाँपकर
धूप बटोरा करता था और उसके साथ अखबार पढ़ा करता
ख़बरें समझ न आने पर वो गर्दन मटकाकर
चेहरे बनाया करती थी
 मैं जब नाखून काटता और वो छिटककर उस तरफ़ गिर जाता
तो वो उसे कीड़ा समझकर खाने भी दौड़ती
और मैं उसके बुद्धू बनने पर बे-तहाशा हँसता

इधर बीच मैं तमाम दिनों से आँगन में बैठ कर
अखबार पढने नहीं जा पाया

मेरे बच्चों ने एक मोबाइल दिला दिया था
 जिसे ऊँगली से रगड़ दो तो वो हर दफ़ा
वही अख़बार वाली ख़बरें सुना देता था
 बच्चे भी आँगन में खेलने नहीं जाते
वो मोबाइल में दिन भर एक खेल खेला करते हैं
वो न मालूम क्यों उसे ‘एंग्री बर्ड्स’ कहते हैं

उन्होंने चिड़िया की शक्ल वाली एक ऐप भी डाली है 
और उस पर मेरी बेटी ने कल एक ट्वीट किया है -
“Sparrows have gone extinct”
मैं ये देखकर सहम गया हूँ कि
उस ऐप वाली चिड़िया की शक्ल
गौरैया से हू-ब-हू मिलती है
और मैं भागकर बच्चों से पूछता हूँ -
“ये वही गौरैया है क्या” ?
मगर वो ध्यान नहीं देते

वो बस खेल में मगन, स्वाइप करते रहते हैं
और हर एक स्वाइप के साथ
उनके मोबाइल की स्क्रीन पर कुछ ‘एंग्री बर्ड्स'
दिन भर सर पटकती रहती हैं
और यकायक ऐसे ग़ायब हो जाती हैं, कि जैसे
वो कभी थी ही नहीं !!

Thursday 30 March 2017

बम्बई

जानती हो तुम?
बम्बई भागता रहता है
हरदम, दर बदर
फिर भी न हाँफता,
 ख़ुदा न खाँसता,
दौड़ता रहता है, यहाँ हर रास्ता,
गलियों को चीरकर.
ट्रेनें छूटती हैं कि जैसे
छूट गई हो तमंचों से गोलियां
या गेंदों के पीछे बच्चे
जो चले जाएँगे फ़लक तक,
ग़र जो रोके नहीं गए, पुकार कर.
तुम आओगी तो देखना,
कि आदमी, यहाँ यूँ निकल जाता है
आदमी से कंधे रगड़कर, छीलकर
 फिर भी कोई पीछे नहीं देखता
बस बुहार देता हैं कन्धा
शर्ट से धूल झाड़ कर.
रातों रात नहीं हैं लोग सोते
कि जैसे सोना कोई अपशकुन हो
कहते हैं कि ये शहर
सदियों से नहीं है सोया,
यहाँ भटकते हैं शिवाजी
म्यान में तलवार लेकर.
यहाँ लोग, माले पर माला, जोड़कर
इतनी ऊंची इमारतें, इतनी जल्दी
कुछ यूँ बना देते हैं
कि जैसे पिट्ठू खेलते वक़्त
हम बना देते थे फटाफट
पत्थरों के ऊंचे टावर.
तुम आओगी तो देखना
यहाँ बिजली से तेज चलने वाली
लम्बोर्गनी और फरारियां हैं
जो फ़रार हैं कब से,
फिर भी बस रेंग ही पाती हैं
किसी केंचुए की तरह
लम्बे ट्रैफिक जामों में फंसकर.
तुम आओगी तो देखना,
तुम भी हैरान हो जाओगी,
देखकर, कि यहाँ सब लोग
जल्दी में हैं, इतना
फिर भी समय पर
कोई, नहीं पहुँचता, यूँ भागकर.
बम्बई भागता रहता है
इस क़दर,
फिर भी, इक ज़माने से
कहीं भी तो पहुँच नहीं रहा है.
कि ये जितना चलता-बढ़ता है,
उसे उतने ही क़दम पीछे
धकेल देता है, समंदर
लहरों के झाड़ू से झाड़कर.
तुम आओगी तो देखना
कि यहाँ नहीं है वो सुकून
जो रात भर मिलता था
तुम्हारी बाहों में
 कि जब रुक जाता था सब कुछ
तुम्हारी गोदी में लेटकर
तुम आओगी तो देखना
कि कभी न रुकने वाली
बम्बई में भी
मैं
रुक
गया
हूँ
तुमको
देखकर
ख़ुशी से
चौंक कर

Saturday 8 October 2016

बकेट लिस्ट

अपने आख़िरी दिनों में,
अपनी बकेट लिस्ट
टिक करते हुए,
मैं दुनिया के सात अजूबे
देखना. नहीं चाहता. 
न ही यूरोप के सुन्दर देश,
न ही जंगल, नदियाँ, पहाड़.
न इमारतें, मोन्यूमेंट, महल
पेंटिंग्स, स्कल्पचर या पिरामिड

मैं चाहता हूँ, कि
अपने आख़िरी दिनों में
मैं बच्चों के किसी स्कूल जाकर
रोज़ाना तय समय से पहले
छुट्टी की लम्बी घंटी बजा दूं
और स्कूल के बच्चों को
बे-इन्तहा ख़ुशी से दौड़ते,
कूदते, फाँदते, खिलखिलाते
तब तक देखता रहूँ,
जब तक कि हो न जाएँ वो,
नज़रों से ओझल

Sunday 18 September 2016

राम आसरे की बेटी

राम आसरे की बेटी
रोज़ सुबह तड़के, उठकर
स्लेट को अपनी फ्रॉक के
कोर से पोछती है
और स्लेट के ऊपर, बीचों-बीच 
चाक से लिखती है 'ॐ'
और नीचे लिखती है पहाड़ा
दो एकम दो, दो दूनी चार का
और 10/10 को गोले में भरकर
ख़ुद ही 'वेरी गुड' लिख देती है

राम आसरे की बेटी
पीले रंग की गेटिस से
सफ़ेद फीते के फूल के साथ
बाँधती है छोटी सी चोटी
और डॉट पेन की स्याही से
सुबह के सूरज को देखकर
लाल रंग की बिंदी लगाती है
और रामआसरे की साइकिल पर
घनंघन घंटी बजाते हुए
बाल विद्यालय में पढ़ने जाती है

राम आसरे की बेटी
वहाँ गाती है पोएम
हिंदी की, अगंरेजी की
बबलू की और डब्लू की
हम्प्टी, डंपटी, बंटी की
हाथी की और चींटी की
थर्स्टी वाले कौए की
दूर गाँव के नौए की
हलवाई के पेठे की
आलू कचालू के बेटे की

राम आसरे की बेटी
वाटर कलर से सीनरी बनाती है
जिसमें वो तिकोने पहाड़ के पीछे
चमकदार सूरज निकाल देती है
और आस पास कौए उड़ा देती है
आसमानी रंग की नदी बहा देती है
और उसमें तैरा देती है तीन चार नाव
बनाती है एक टोपी वाली झोपड़ी
जिसमें एक गोले और तीन चार डंडी से बना
खड़ा दिखता है सरल सा राम आसरे

राम आसरे की बेटी
जब घर में मेहमान आते हैं
तो बिना शर्माए, घबराए
कहती है माई नेम इज़ मीरा आसरे
एंड माय फ़ादर्स नेम इज़ राम आसरे
तो राम आसरे उसके मुह से
अपना नाम सुनकर, ख़ुशी के मारे
रुआसा हो जाता है
और अपनी बेटी को
कन्धों के ऊपर, बिठा कर
मोहल्ले भर में घुमाता फिरता है

राम आसरे की बेटी
राम आसरे के कंधे पर
जब ज़ोर से हँसती हुई
मोहल्ले भर में घूमती है
तो राम आसरे भगवान से,
बार-बार, प्रार्थना करता है,
कि उसको कन्धों में
बस इतनी शक्ति हमेशा रहे,
कि राम आसरे
राम आसरे की बेटी को
राम आसरे के कन्धों पर
हमेशा घुमा सके

Tuesday 6 September 2016

प्रेम में पड़े लोग

"ज़रा देखो तो. इन्हें.
ये पागल चींटियाँ,
ख़ुद से हज़ार गुना भारी
बोझा ढोती फिरती हैं
दिन रात"

- एक चींटी की ओर
इशारा करते हुए
मैंने कहा.

"प्रेम में पड़े लोग भी
इन जैसे ही होते हैं
अक्सर अपनी धुन में
बे-इन्तहा प्यार ढोते
आ जाते हैं
किसी के पाँव के नीचे"

- पैर बचाते,
मन मसोसते
उसने कहा

Monday 5 September 2016

टीटू की साइकिल

सेंसेक्स सौ अंक गिर रहा है
टीटू साइकिल चलाना सीख रहा है
वो उसे उंगली पकड़ के टहलाता है
घर से मैदान, मैदान से घर
साइकिल के गर्भ में घुसकर
कैंची काट, डग भर
घंटी बजा, टननटन
पाकिस्तान भारत पर बम गिरा रहा है
टीटू साइकिल चलाना सीख रहा है
वो उसे केरियर से धक्का देता है
लंगड़े वाले कुत्ते के पीछे
आँखें खोल, आँखें मीचे
चढ़ाई से ऊपर, ढलान से नीचे
अपनी धुन में गज़ब मगन
चीन नया लड़ाकू जहाज बना रहा है
टीटू साइकिल चलाना सीख रहा है
वो उसके पैडल पर पाँव रख तैरता है
घंटों एक ही रस्ते पर गोल-गोल
जाने कितनी बार गिरता है
घुटना गया फूट, ये भी नहीं सोचता है
घुटना छोड़ अपनी साइकिल पोछता है
नई सरकार में नया बिल आ रहा है
टीटू साइकिल चलाना सीख रहा है
अब वो उचक कर गद्दी पर बैठ जाता है
इधर उधर मटकाता हुए कूल्हा
घोड़ी पर जैसे बैठा हो दूल्हा
चौड़ी सी छाती, सीना भी फूला
सरपट रेस लगाता है
भारत ओलम्पिक मैडल पर चिंतन कर रहा है
टीटू साइकिल चलाना सीख गया है
अब वो आसमान से बातें करता है
परिंदों की तरहा, उड़ता है फ़ुर
दिल्ली, बनारस, भटिंडे, कानपुर
हाँकता है जैसे तांगा हुर्र हुर
दूसरी दुनिया में पहुँच जाता है
सीरिया में तख्तापलट हो रहा है
टीटू साइकिल चला रहा है
और साइकिल चलाते चलाते
दूसरी दुनिया पहुँच गया है
दूसरी दुनिया में न आइसिस है
न पाकिस्तान, न चीन
न गिरता है सेंसेक्स
न गिरता है बम
न मिलते हैं मैडल
न पास होते हैं बिल
दूसरी दुनिया में
बस साइकिलें हैं
और टीटू जैसे बहुत सारे बच्चे
जो दिन रात साइकिल चलाते हैं
और अपनी साइकिल में
इस बासी दुनिया से अलग
एक नई प्यारी दुनिया बसाते हैं

Wednesday 20 July 2016

शौहर की तरफ़ से, बीवियों पर एक ललित निबंध

बीवियों को बला की ख़ूबसूरत, अप-टू-डेट होना चाहिए
बीवियों को शौहर के माथे की शान-ओ-गुरूर होना चाहिए
बीवियों को दुनिया भर के देखने की दिलरुबा होना चाहिए
बीवियों को शौहर के आने का इंतज़ार करना चाहिए
बीवियों को शब-ए-रात, शौहर की बेरुखी सहना चाहिए 
बीवियों को चुप-चाप, अन्दर ही अन्दर घुटना चाहिए
बीवियों को चाहते-न-चाहते शौहर के साथ रहना चाहिए
बीवियों को शौहर की बाँहों में दम तोड़ देना चाहिए
बीवियों को शौहर के लिए धरती का स्वर्ग होना चाहिए
बीवियों को, ता-उम्र, कश्मीर होना चाहिए ?

Sunday 10 July 2016

खरगोश का घर

मैं बड़े जतन से, ख़ुद के लिए
एक कविता लिख रहा हूँ,
शब्द पर शब्द रखकर
मात्रा-वात्रा लगाकर
उधर बच्चे खरगोश के लिए
बना रहे हैं घर
ईंटे पर ईंटा रखकर
पत्थर-वत्थर सटाकर
कविता, पूरी होकर
एक घर हो जाएगी
और घर पूरा होकर,
हो जाएगा एक कविता
मुझे और उस खरगोश को
अब अकेले नहीं रहना होगा

Thursday 7 July 2016

तलब

मुझे ख्वाहिश है
एक थ्री बी.एच.के. घर की
लम्बी सेडान कार की
अप्रेज़ल और प्रमोशन की
पिता को जल्दी रिटायरमेंट की
एक घंटा एक्स्ट्रा अख़बार पढने की
सुबह उठते ही चाय पीने की
राजू को पतंग लूटने की
मर्तबान में टैडपोल पालने की
सेंट वाली इरेज़र की
मिस कपूर को मालबोरो की
स्टेलाटोस और डायमंड की
सो सकने के अधिकार की
बाई को टाइम पे तनख्वाह की
दो सौ रूपए बख्शीश की
दीवाली, होली पे सूती साड़ी की
माँ को दोपहर की नींद की
सफ़ेद कपड़ों की साफ़ धुलाई की
दूध में अच्छी मलाई की
बुधिया को बारिश की
रबी, खरीफ़, जायद की
चावल में अच्छी फली की
दादी को मजबूत जोड़ों की
पक्के वाले नकली दांत की
कुम्भ में स्नान की
रुमझुम को अच्छी सेल्फ़ी की
बिना पिम्पल के चेहरे की
सब कुछ पिंक होने की
ख्वाहिश है, तलब है

सोचता हूँ, कि,
घर, कार, अख़बार,
चाय, मालबोरो, बख्शीश,
नींद, मलाई, इरेज़र
पतंग, फली, और दांत जैसी
छोटी-छोटी चीज़ों की तलब,
ज़िन्दगी को
कितना आसान बना देती है
और उनके पीछे
जुगनुओं की तरह
भागते-दौड़ते

हमें ज़िन्दगी के असल मायने
खोजने के लिए,
जूझना, उलझना, सोचना नहीं पड़ता
और एकदिन थककर, हताश होकर
गौतम बुद्ध नहीं होना पड़ता



Sunday 6 March 2016

कॉटन


यार ! चलो कहीं चलते हैं,
घूम-फिर-आने जैसा 'चलने' नहीं
चलते-चले-जाने जैसा 'चलने' के लिए

यूँ नहीं कि पंछियों जैसा उड़ें 
तो हर शाम लौट आने के लिए
चलें वहां, जो दफ़्तर, स्कूल या मार्किट न हो
चलें तो ऐसा, कि लौट आने की सुध न हो

जैसे दो बच्चे क्रिकेट खेलने निकल गए हों
माँ कितना भी बुलाए, पर वो लौटें न

भरी दुपहर, घाम, धूप, शाम, छाँव, रात
बिना प्लान, बिन सामान, चले चलें
जैसे पापा की ऊँगली थामे
उसे झुलाते, चलते चले जाते थे

चलें, तो यूँ नहीं कि चलता देख,
कोई कहे, कि, "चलना ही ज़िन्दगी है"
चलें तो यूँ कि कपास के बीज की तरह
निरन्तर उड़ते रहेंं, रुई वाला बाबा बनकर

दो पल के लिए रुकें भी किसी की मुट्ठी में
तो खोलते ही फिर उड़ जाएं

चलें, कपास से टूटे,
कपास का आवारा बीज, बनकर
जिसे कपास के बाकी रेशों की तरह
कॉटन की बोरिंग वरदी नहीं बनना पड़ता

Saturday 7 November 2015

घर से दफ़्तर का रास्ता

घर से दफ़्तर के रास्ते में
कनेर की फूलों की एक क्यारी है
जिसमे रोज़ाना नए फूल खिलते हैं,
पर मैं उनके उगने-खिलने का हिसाब
उँगलियों पर नहीं रख पता
ये भी नहीं देख पाता कि
उनकी पंखुड़ियों पर उकड़ूँ बैठी तितलियाँ
उनमें क्या झाँकती फिरती हैं
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से दफ़्तर के रास्ते में
मेट्रो स्टेशन के किनारे, एक सपेरा बैठता है,
मुझे नहीं मालूम पड़ता कि आज साँप
दस का नोट निगल गया होगा या पांच का
करतब में बजी होगी ताली
तो कितनी भरी होगी थाली
मैं देख नहीं पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से दफ़्तर के रास्ते में
रोज़ घर से मिसकॉल आता है
घर जो कानपुर में है, वहां से
दिल्ली में ठण्ड पड़ रही है ?
या हो रही है बारिश
खाना खा रहा हूँ, ढंग से
और पी रहा हूँ दूध?
मैं इसका जवाब नहीं दे पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से दफ़्तर के रास्ते में
सोसाइटी का गार्ड रोज़ नमस्ते बोलता है
आठ महीने से बोल रहा है शायद
वो दरवाज़ा झट से तीन सेकेण्ड में खोल देता है
फिर अच्छा सा'ब कह के
न जाने क्या जानना चाहता है
या नहीं भी जानना चाहता हो शायद
मैं इसकी पड़ताल नहीं कर पाता,
और नमस्ते का जवाब भी नहीं दे पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से दफ़्तर के रास्ते में
एक अधूरी नज़्म है
जो पेट से हो शायद
मुझे घूर-घूर कर देखती है
पर मैं डरता हूँ, इस कदर
कि वो आस से न हो शायद,
उसे भी, आँखों में आँखें डालकर
मैं देख नहीं पाता
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से दफ़्तर के रास्ते में
और भी रास्ते हैं,
जो दफ़्तर नहीं जाते

पहाड़, नदी, जंगल
सिनेमा, सर्कस, थियटर
दोस्त, माशूक़ा, ज़िंदगी
खेत, दरिया, बीहड़
और न जाने कहाँ-कहाँ तक जाते होंगे

उनके माइलस्टोन, देख कर भी
मैं अनदेखा कर जाता हूँ
क्योंकि मुझे घर से, सीधा,
दफ़्तर पहुंचना होता है

घर से, सीधा, दफ़्तर पहुंचना
कितना अलग है
घर से, कहीं भी और पहुँचने से

सीधा कहीं भी पहुंचना
कितना अलग है
कहीं भी,
सीधा न, पहुँचने से !

Wednesday 19 August 2015

Bijuka (Sacrecrow)


तुम्हारे इश्क़ को
फूस के पुतले की तरह
दुनिया-जहाँ के
इस खलिहान में
बीचों-बीच

बिजूका बनाकर
खड़ा कर लिया है मैंने !

फटी बुशर्ट और
टेढ़ी हैट में
ख़याली
भुरभुरा
निठल्ला
मजाकिया
और पोला-पोला
ही सही

पर ये पुतला
कारगर है !

अब दिन-ओ-शाम
नीदें ख़राब, जाग कर, मुझे
फ़िक्र-ओ-ग़म के
काने-काले-कौवों को

हाँकना नहीं पड़ता !

Thursday 16 July 2015

विक्रम और बेताल

इश्क़ की 'नियति' जो भी हो,
कबूतर-कबूतरी का जोड़ा बने रहना
या एक रोज़ विक्रम और बेताल हो जाना
लेकिन, प्यार करना भूल चुकी,
इस नई जनरेशन के 'सिनिसिज़म' के बीच,
बासी पुरानी कहानियों से बोर होकर
तुम जब भी कभी फुर से उड़ो
तो देर सबेर लौट ज़रूर आना
और इन कांधो पे वापस अटक जाना
रहगुज़र, तुमसे
और भी बहुत सी कहानियाँ
सुननी सुनानी हैं !

Sunday 12 July 2015

के.एल.सहगल

हम बरसात की,
किसी अलसाई दोपहर
यूँ-ही, अनायास
फिर मिलेंगे,
मैं पुराने रेडियो की तरह
तनी से कन्नी मारकर,
तुम्हें, हवा मैं तैरते
के.एल.सहगल के गाने जैसा
खोज निकालूँगा !
अनायास......

Wednesday 8 July 2015

कमल दफतर चल

कमल दफतर चल 
नटखट मत बन
इधर उधर मत कर 
घर-दफ्तर 
दफ्तर-घर 
रह-रह 
कर-कर मर !

Thursday 2 July 2015

अब पहले की तरह कविताएँ नहीं आतीं

अब पहले की तरह
कविताएँ नहीं आतीं

कुछ अरसा पहले
गाहे-बगाहे, बिना बताए
ज़ेहन में, यूँ ही,
कितने हक़ से चली आती थीं

जैसे बालकनी में गौरैया
पंजों पर उछलती कूदती
मुझसे पूछे बगैर, चली आती थी,
और चोंच से, सुकून से
काढती रहती थी अपने पंख

जैसे कपास का झबरा बीज
बुढ़िया के बालों सा उड़ता हुआ,
हथेली से टकरा जाता था
कुछ देर मुट्ठी में सिकुड़ कर
फिर निकल पड़ता था टकराने
किसी और की मुट्ठी से

जैसे आ जाती थी तुम्हारी याद
बारिश में भीग कर छींकने पर
और फिर तमाम-तमाम देर
लगातार आती रहती थी
छींक की तरह

जैसे दरवाजे पर आ जाता था
हाथी वाला बाबा
और दस का नोट छुआ कर
स्प्रिंग की तरह, सूंड नचाकर
सलाम करता था उसका हांथी

अब पहले की तरह
कविताएँ नहीं आतीं

लोग इन्हें, पहले की तरह
दीवानगी और शौक से
पढ़ते तो भी तो नहीं है

जैसे पहले पढ़ा करते थे
महबूब के लिखे
अंतरदेसी और पोस्टकार्ड

जैसे पहला पढ़ा करते थे
पीठ पर लिखी
किसी की उंगली की पहेली

जैसे पहले पढ़ा करते थे
बच्चों के झुण्ड
स्कूलों में इमला

जैसे पहले पढ़ा करते थे
आँखों में छिपी
जाने-कौन-सी-बात

जैसे पहले पढ़ा करते थे
चाय के दाग वाला
सनडे का अखबार

अब पहले की तरह
कविताएँ नहीं आतीं

अब, जब भी
आती हैं तो
ऐसे, जैसे,

बगल में फोड़ा
बे-मौसम का बुखार
झील में खरपतवार
दूर के मेहमान
या इम्तहान का रिज़ल्ट

कविताएँ, अब
पहले की तरह,
नींद जैसे क्यों नहीं आतीं ?
कि बस आएं और
इस दनिया से इतर
किसी और सी दुनिया में
सुकून से छोड़ आएं !

Thursday 26 March 2015

क्लीशे

जानती हो ?
डर बस इस बात का है
कि एक दिन
सब 'क्लीशे' लगने लगता है
और, चीज़ी,
इमप्रैक्टिकल,
बचकाना हो जाता है
न मालूम क्यों, पर उन्हें
बात-बात पर, महबूबा को
"आई लव यू" कह देना
अब कूल नहीं लगता
पहले "कुछ कुछ होता है"
पर बहुत कुछ होता था
पर अब पसंद नहीं आता
लाल रंग, नाइंटीज़, गुब्बारे
चोपड़ा या करन जौहर
तुम भी तो कहती हो, कि
मुझे "बाबू" या "जानू" मत कहा करो
कितना चीज़ी लगता है !
"दफ़्तर से इतना छुट्टी मत लिया करो"
"काम ज़्यादा ज़रूरी है"
"और हम अब बच्चे नहीं रहे"
वो सब भी यही कहते हैं, कि
हर काम की एक उमर होती है
और होता है, वक्त का तकाज़ा
कि करियर और एम्बिशन
ज़्यादा ज़रूरी होता है
खुली छत पर लेटकर
सुकून से, रात भर
खुला आसमान तकने की
बचकानी सी ख्वाहिश से
कहीं ज़्यादा ज़रूरी
क्या मालूम ?
होता ही होगा शायद !
पर डर तो लगता है न !
डर !
कि एक दिन
सब 'क्लीशे' लगने लगता है
और, चीज़ी,
इमप्रैक्टिकल,
बचकाना हो जाता है

Sunday 22 March 2015

टिक-टैक-टो

डेजा वू समझती हो ?
कल देर रात तक
आसमान में तारे
ताक रहा था
फिर आज दिखी तुम
मोगरे के सफ़ेद फूल
जूड़े में सजाए
और दिखी वो बच्ची
जो यूं ही काली स्लेट पर
खेल रही थी
कट्टम और जीरो
जैसे, जूड़े में मोगरे
या आसमान में तारे
डेजा वू !

Wednesday 18 March 2015

मूंगफलियाँ

मैं आजकल
कहानियाँ नहीं लिख पाता
कविताएँ लिख लेता हूँ
तुम भी तो चोटी नहीं बनाती 
बस आनन-फ़ानन में
जूडा बाँध लेती हो !
इतवार अब भी आता है
पर जैसे कोई सोमवार
नाम बदल कर आया हो
गुनगुनी सी दोपहरें
तुम्हारी स्किन पर
सन-स्क्रीन देख कर
लौट जाती हैं
मूंगफलियाँ, जो इस सर्दी में
पाँव भर ही खरीदीं थीं
यूँ ही रखे हुए
आधी से ज्यादा सील गईं
जोड़ी की एक पायल
जो पिछले महीने खोई थी
न मालूम कहाँ होगी
खोजने का वक़्त भी नहीं मिला
गर जो कभी
वक्त मिला तो
दफ्तर में
बैक-टू-बैक
मीटिगों के बीच
दोनों, सोचेंगे
कि पहले
कैसे,
इतवार की हर गुनगुनी धुप में
मेरे घुटनों में सर फंसाकर
तुम घंटों मूंगफलियाँ चबाती रहती थी
और मैं, तुम्हारे बालों में तेल लगाते
कसी-मोटी चोटी बनाते
कितनी ही कहानियाँ गूँथ लेता था
और आख़िर में तुम चादर पर से
छिलके बीनते कहती थी
"ये लो ! ये पायल
यहीं तो थी
चादर के नीचे
बुद्धू !!"

Monday 2 February 2015

प्लूटो

एक दिन
तुम भी हमसे कह देना
कि सुनो रे 'प्लूटो'
हम नहीं मानते 
ये तुम्हारा वज़ूद,
अब चलो यहाँ से फूटो !

सीसी टीवी

पिया न हमको घूरो अइसे, जैसे सीसी टीवी 
इतना मत इस्कैन करो, शर्मा जाएगी बीवी 
बड़ी-बड़ी आखें लेकर, दिन रतिया आगे-पीछे 
फोटोकॉपी करते हो क्या अखियाँ खोले-मीचे !

Sunday 4 January 2015

ज़िन्दगी आइसपाइस

आओ न पीछे से जाकर मारें उसको धप्पा
कहें घुमाओ हमको पिठ्ठू लेकर चप्पा चप्पा
नीली वाली चिड़िया खोजे झबरा वाला पिल्ला
ढूंढें कहाँ छुपा बैठा है निरा आलसी बिल्ला
गैरज में है भूत भला क्या चलो झाँककर आएं
देखें फ़र्स्ट कौन आएगा कसकर दौड़ लगाएं
दिन भर खेलें हूल गदागद, राजा मंत्री बन लें
इन दोनों में चोर कौन है आओ बूझें चुन लें
खोजो कहाँ बड़ी वाली उंगली है इस मुट्ठी में
ख़ुशी की तरह छिपी हुई है जीवन की गुत्थी में

Saturday 13 December 2014

सब आरज़ुएं जनानी

बाहों में दबा कर गुलाबी तकिया, सोते नहीं है
ये मर्द न जाने क्यों रातों में, रोते नहीं है ?
दिल में छुपाए फिरते हैं, सब आरज़ुएं जनानी
वही क्यों बनना चाहते हैं, जो ये, होते नहीं हैं