Thursday 2 July 2015

अब पहले की तरह कविताएँ नहीं आतीं

अब पहले की तरह
कविताएँ नहीं आतीं

कुछ अरसा पहले
गाहे-बगाहे, बिना बताए
ज़ेहन में, यूँ ही,
कितने हक़ से चली आती थीं

जैसे बालकनी में गौरैया
पंजों पर उछलती कूदती
मुझसे पूछे बगैर, चली आती थी,
और चोंच से, सुकून से
काढती रहती थी अपने पंख

जैसे कपास का झबरा बीज
बुढ़िया के बालों सा उड़ता हुआ,
हथेली से टकरा जाता था
कुछ देर मुट्ठी में सिकुड़ कर
फिर निकल पड़ता था टकराने
किसी और की मुट्ठी से

जैसे आ जाती थी तुम्हारी याद
बारिश में भीग कर छींकने पर
और फिर तमाम-तमाम देर
लगातार आती रहती थी
छींक की तरह

जैसे दरवाजे पर आ जाता था
हाथी वाला बाबा
और दस का नोट छुआ कर
स्प्रिंग की तरह, सूंड नचाकर
सलाम करता था उसका हांथी

अब पहले की तरह
कविताएँ नहीं आतीं

लोग इन्हें, पहले की तरह
दीवानगी और शौक से
पढ़ते तो भी तो नहीं है

जैसे पहले पढ़ा करते थे
महबूब के लिखे
अंतरदेसी और पोस्टकार्ड

जैसे पहला पढ़ा करते थे
पीठ पर लिखी
किसी की उंगली की पहेली

जैसे पहले पढ़ा करते थे
बच्चों के झुण्ड
स्कूलों में इमला

जैसे पहले पढ़ा करते थे
आँखों में छिपी
जाने-कौन-सी-बात

जैसे पहले पढ़ा करते थे
चाय के दाग वाला
सनडे का अखबार

अब पहले की तरह
कविताएँ नहीं आतीं

अब, जब भी
आती हैं तो
ऐसे, जैसे,

बगल में फोड़ा
बे-मौसम का बुखार
झील में खरपतवार
दूर के मेहमान
या इम्तहान का रिज़ल्ट

कविताएँ, अब
पहले की तरह,
नींद जैसे क्यों नहीं आतीं ?
कि बस आएं और
इस दनिया से इतर
किसी और सी दुनिया में
सुकून से छोड़ आएं !

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