Friday 30 August 2013

मैं शब्द हूँ

मैं अपने ही जीवन का पिघला सूरज हूं
जो अपने यश की कीर्ति निगलकर भस्म हो चला

मैं अपने ही उद्गम से भटका निर्झर हूं
जो अपने कद के भय से मिटकर बूंद हो चला

मैं उम्मीदों का सिन्धु डूबता उतराता सा
जो अपने तट की परिधि खोजता लुप्त हो चला

मैं सनेह का प्यासा भिक्षुक, आतुर, पागल
जो अपना भावुक तरल चूसकर ठूंठ हो चला

मैं अपने ही बोझिल फलकों पर इन्द्रधनुष सा
जो अपने रंग की चकाचौन्ध से नूर खो चला

मैं अपनी ही आंखों का आंसू, बहा अलग सा
जो अपनी ही नजरों से गिरकर भूल हो चला

मैं अपनी रिसती कलम से छूटा शब्द अनोखा
जो पन्नों में फंसकर जीवन भर कैद हो चला

मैं अपने ही साहस का उड़ता मूर्ख पतन्गा
जो अन्तराग्नि में जलकर पल में छार हो चला

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