एक कवि,
छोटे बच्चों जैसा होता है
जो नए-निकलते दांतों
के "अरसाने" से
हर चीज़ काटते फ़िरते हैं
उँगलियाँ, चप्पल, मिट्टी,
तश्तरियाँ, बक्कल, चिक्की
भले उनकी हथेलियों में
नीम-करेला-मिर्ची मल लीजिए,
वो उन्हें चूसना नहीं छोड़ते
कविता
शौक़ की उपज नहीं है
कविता उलझन है
मजबूरी है
निखिल जी, सौ फीसदी सच बात कही है।
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