Friday 30 August 2013

चकला

आज समाज के चकले में
अपनी मर्जी से
एक नई जुगनी आई है

खरी भी करारी भी

मुज़रे में तेरे मेरे
हमशकल
हूर नुमा साकी के
तलवे चाटते मिलेंगे

बंद नाक से
कांसे के गज़रे सूंघते
खून के कत्थे और
मास के लोथड़ों के
गुलकंद से ठसाठस

पान चबाते
और अपनी ही सफ़ेद
पोशाक पर थूंकते मिलेंगे

कोठे में ...
नीलामी करते दिखेंगे.

तवायफ़ अजीब है
नौलखा लेकर भी
खाली ठिंगन करेगी
दो चार बोल गा देती है
थोड़ा सा पल्लू
सरका देती है

बात तुम्हारे झूठे मान की है
तो अब नीलामी होगी

घंटे के हिसाब से
एक एक करके
दो कौड़ी के उसूल
करोड़ों में
गिरवी रखे जाएंगे
और उसके लंहगे
या फ़िर चोली में
रेशा रेशा बेशर्मियत से
टांक दिया जाएगा .

खुश होकर...
जुगनी अब नाचेगी
नथ उतरने तक
महफ़िल बारी बारी नंगी होगी

कहकहे लगते रहेंगे
जब तक अधेड़ उमर
अपने ही ठहाके से
बहरे ना हो जाएंगे

अगले दिन होश आए
या फ़िर ठर्रा उतरे
तो बोझिल आंखों के
शटर उठाकर देख लेना
हाथ की उंगली में
टूटी नथ अटका के
लहंगे में तुम ही तो पड़े थे

रात भर कहरवे पर
'मधुबन में राधिका'
तुम ही तो नाचे थे 

शर्मिंदा मत होना ,
क्योंकि अगली रात
तुम्हारे गिरहबान
के सीखचे से
एक नई जुगनी झांक रही होगी

और कागज़ की रंडी बनने को
तैयार खड़ी होगी ....

अपना ही मुज़रा देखने को ..
गिरवी रखने को ..
दो चार उसूल लाए हो ना ...?

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