आज समाज के चकले में
अपनी मर्जी से
एक नई जुगनी आई है
खरी भी करारी भी
मुज़रे में तेरे मेरे
हमशकल
हूर नुमा साकी के
तलवे चाटते मिलेंगे
बंद नाक से
कांसे के गज़रे सूंघते
खून के कत्थे और
मास के लोथड़ों के
गुलकंद से ठसाठस
पान चबाते
और अपनी ही सफ़ेद
पोशाक पर थूंकते मिलेंगे
कोठे में ...
नीलामी करते दिखेंगे.
तवायफ़ अजीब है
नौलखा लेकर भी
खाली ठिंगन करेगी
दो चार बोल गा देती है
थोड़ा सा पल्लू
सरका देती है
बात तुम्हारे झूठे मान की है
तो अब नीलामी होगी
घंटे के हिसाब से
एक एक करके
दो कौड़ी के उसूल
करोड़ों में
गिरवी रखे जाएंगे
और उसके लंहगे
या फ़िर चोली में
रेशा रेशा बेशर्मियत से
टांक दिया जाएगा .
खुश होकर...
जुगनी अब नाचेगी
नथ उतरने तक
महफ़िल बारी बारी नंगी होगी
कहकहे लगते रहेंगे
जब तक अधेड़ उमर
अपने ही ठहाके से
बहरे ना हो जाएंगे
अगले दिन होश आए
या फ़िर ठर्रा उतरे
तो बोझिल आंखों के
शटर उठाकर देख लेना
हाथ की उंगली में
टूटी नथ अटका के
लहंगे में तुम ही तो पड़े थे
रात भर कहरवे पर
'मधुबन में राधिका'
तुम ही तो नाचे थे
शर्मिंदा मत होना ,
क्योंकि अगली रात
तुम्हारे गिरहबान
के सीखचे से
एक नई जुगनी झांक रही होगी
और कागज़ की रंडी बनने को
तैयार खड़ी होगी ....
अपना ही मुज़रा देखने को ..
गिरवी रखने को ..
दो चार उसूल लाए हो ना ...?
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