Friday 30 August 2013

मुक़म्मल नाम

आदमी का नाम,

ज़िन्दगी में 
बस पांच दफ़े
"मुक़म्मल" होता है. 

पहली दफ़ा तब, 
जब उसकी माँ, उसे 
लरज़ती हंथेलियों में उठाकर 
पहली मर्तबा उसके नाम से पुकारती है 
और नाम का एक-एक लव्ज़ 
आजू-बाजू की एक-एक मातरा के साथ 
आंसुओं से धुल-पूछ कर 
सरकार की "मुहर" सा बन जाता है.

दूसरी दफ़ा तब, 
जब वो खुद स्लेट पर 
अपनी पोनी-पोनी उँगलियों में 
सफ़ेद-सफ़ेद खड़िया फंसा कर 
अपना जटिल सा नाम 
गणित के समीकरण की तरह 
आड़ा तिरछा सा लिखता है 
और वो स्लेट पर 
अध्यापक की नज़र में 
"हेन्स प्रूव्ड" की मुक़म्मल शकल ले लेता है. 

तीसरी दफ़ा तब,
जब उसकी महबूबा, उसका नाम 
'बूझो-तो-जानें' के खेल में
उसकी पीठ पर
कठिन सी
लाल-बुझक्कड़ पहेली की तरह लिखती है 
और वो उसका जवाब -
"बुद्धू अपना नाम भी नहीं जानते" 
कहकर देती है.


चौथी दफा तब,
जब स्कूल में उसकी बेटी 
अंगरेजी के पर्चे में बिना स्पेलिंग गडबडाए 
लिखती है कि उसका नाम 
कोठी की नेम प्लेट की तरह
माई फादर्ज़ नेम इज़
"मिस्टर फलाँ-फलाँ" में, सँजोकर.

और पांचवी दफ़ा तब, 
जब बड़ी-भारी भीड़ में 
गठरी से सकुचाए
उसके बाप का परिचय 
उसकी फूली छाती से भी
चौड़े हो चुके
'बेटे के नाम' से कराया जाता है. 


जिंदगी में 
बस पांच दफ़े
"मुक़म्मल" होता है ...

आदमी का नाम...

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