Friday 30 August 2013

किवाड़

वो मेरे घर में 
किवाड़ की तरह रहे 
बेडरूम और बैठकी में 
फटकने से, 
डरते-कतराते थे 

मैं चिढ़ता-कुढ़ता रहा 
उनकी चाँय-चाँय 
और ख़ट-पट से 

मेरे माँ-बाप, मगर 

खड़े रहे,
सालों-साल ! 
ना जाने कौन सी 
अनहोनियों को 
घर में घुसने से 
रोकने के वास्ते !

न ग्रीज़िंग मांगते थे, 
न ऑयलिंग 
अपने झुर्रीदार कब्जों के ख़ातिर 

उन्हें कुंडी में रखता था 
मगर जब भी धकेला,
तो वो झट से खोल देते थे 
यूँ अपनी काठ की बाहें !
कि जैसे धूप आने पर 
मचल जाता है सन-फ्लावर !

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