वो मेरे घर में
किवाड़ की तरह रहे
बेडरूम और बैठकी में
फटकने से,
डरते-कतराते थे
मैं चिढ़ता-कुढ़ता रहा
उनकी चाँय-चाँय
और ख़ट-पट से
मेरे माँ-बाप, मगर
खड़े रहे,
सालों-साल !
ना जाने कौन सी
अनहोनियों को
घर में घुसने से
रोकने के वास्ते !
न ग्रीज़िंग मांगते थे,
न ऑयलिंग
अपने झुर्रीदार कब्जों के ख़ातिर
उन्हें कुंडी में रखता था
मगर जब भी धकेला,
तो वो झट से खोल देते थे
यूँ अपनी काठ की बाहें !
कि जैसे धूप आने पर
मचल जाता है सन-फ्लावर !
bohot khoob!!
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