Friday 30 August 2013

गोल, काली कश्तियां

एक जोड़ा मुकम्मल,फ़ीका चांद
कतरनों से बुने त्रिपाल
ख़ुसरो की रूबाई
या फ़िर उसके ही

अनाथ पड़े फ़िरदौस जैसा कुछ
बेहिसाब, बेहिज़ाब-बेजान
गुमां , हया और अदा
जैसे कई नामों वली

दिन भर हैरान
परेशान
लटटू सी नाचतीं
दो दशकों से
 गश्त लगातीं

दो गोल काली कश्तियां
या उसकी आखों की पुतलियाँ
 
कई बूंद तकदीर की
पिघली हुई आशनाई
पलकें ..? या फ़िर ..
चाटुकारिता के पैबंद ...
कुल मिला कर कहूं
तो..
मेरी ही आंखें..

ओस के इस नशेमन में
कभी तुम भी रहा करती थीं
साधिकार..सगर्व..
अपना ही घरौंदा मानकर
पूरे हक़ से

आजकल तो गाहे बगाहे
सावन और जेठ में ही
आया करती हो
और दो माह का
किराया देना भी नहीं भूलती..

शायद भूल गई हो
कि ये आंखे तुम्हारा ही
घरौंदा हुआ करती थीं
और ये पलकें
उसी के तिनके

अब जो ये बूढ़ा चांद और
दो गोल काली भटकती कश्तियां
नज़र आती हैं..
कभी उनमें भी
ज़िन्दगी की
चहल पहल हुआ करती थी..

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