बचपन में
एक सुर्री डिलीवरी पर
नाली में गेंद खो जाने की शिकायत में
'चींटे-की-टांग' लिखावट में
बिना पते के
नीले अंतर्देसी लिखे थे तुमको
कम्बखत मारा डाकिया
फेंक जाता था लिफाफे
दरवाज़े पर, चिढ़कर
"चिट्ठी पर पता तो लिख छोकरे" कहकर
डाकिया था असल भोंदू
और मैं चालू 'एक-नंबर'
नहीं जानता था 'पगलेट'
कि तुम्हारा ठिकाना ना लिखना
मास्टर-प्लान था मेरा
'कन्फर्म' करने का
कि 'अबे यार', "विद्या-कसम"
हो भी या नहीं, तुम,
हर पते - 'सर्वव्यापी'
ओमनीप्रेजेंट', हर डगर ??
और देखो
जब, आज तक
ना ही मिला जवाब
और ना ही मिली है प्लास्टिक की गेंद
तो हैरान, सोचता हूँ,
कि अपनी चालाकी पर
हंस ही लूं
या
रो ही लूं
फूट-फूट कर
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