यार सौदागर,
बचपने में तुम हमेशा
तमाम सारे
रद्दी कागज़, अखबार,
कांच और प्लास्टिक के बदले
दस-बीस रूपए दे जाते थे
जिनसे आती थी हमारे लिए
इमली की टॉफी
और बेर का चूरन
किलो भर कबाड़ के बदले
तुम, कितनी उदारता से
अपने तराजू से तौलकर
छुटका और मुझे
कुंटल भर खुशियाँ
थमा जाते थे
सब तुम्हें
कबाड़ीवाला कहते थे
लेकिन मुझे तो
तुम्हारे हुनर में
साफ़-साफ़
खुदा का अक्स दिखता था
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इधर बीच तुम
एक अरसे से नहीं आए
छुटका बड़ी हो गई
और मेरी भी उम्र पक़ चली
हो सके तो
फ़िर से
अपना तराजू लेकर आओ ना
कितनी ही गैरज़रूरी
चीज़ों के बदले
छोटी-छोटी खुशियाँ
खरीद लेना चाहता हूँ
मन भर 'तनहाई' है
कुंटल भर 'उलझनें'
और पसेरी भर पीर
खुदा बनकर ...
फ़िर से आओ ना...
बड़ी ही भोली माँग है।
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