Friday 30 August 2013

बिना तवज़्ज़ो अर्ज़


मैं गुमनाम बिसारी पाती
सूखी-खूनी मुहर लिये
चार अनसुने शेर छ्पाये
बिना तवज़्ज़ो अर्ज़ किये

मैं स्वाती का पगला चातक
प्यासी अपनी चोंच लिये
कूक-कूक पर हूक सजाये
अथक निमन्त्रण साथ लिये

मुझे बनाकर भूला ईश्वर
कुछ अच्छे की आस किये
अपनी गलती पर कुढता वो
एक तूलिका भस्म किये

मैं मेघा का भिक्षुक मरुधर
खड़ा ठूंठ सा बोझ लिये
अपनी जननी की छाती पे
क्यूं कुपुत्र का नाम किये

पारिजात से लदे बाग में
मैं झाड़ी का कुटज बिना जल
सागर के मन्थन मे निकला
शिव को अर्पित तिक्त हलाहल

छाया की चाहत में जब भी
मैं बरगद चढ़ सोया हूं
कलियों के लोभी बसन्त के
स्वागत में गिर रोया हूं

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चिकनी माटी मैं आंगन की
संदी पडी थी , जड़ थी
तुम कुम्हार थे,तुमने मुझमें
आक्रिति खूब भरी थी

रंग भरे थे इन्द्रधनुष के
आंवे पर खूब पकाया
चटक हुआ जब गोल परिधि पर
तब था हाट चढ़ाया

मेरी थी वह खूब नियति
मैं जा पहुंचा मधुशाला
ऊपर से नीचे मुझको
हाला से लब भर डाला

घुट-घुट मरता था वेदी पर
झटपट मैं तड़पा था
पता नहीं क्यों मुझपे तेरा
क्रोध अथक बरपा था

शक्तिमान है तू,क्यों ना फ़िर
मुझको ठोकर मारी
फूट गया होता उस छण
पहली मारी किलकारी

नर्क मुझे दे तू अपनी
ये स्वर्ग मुझे है भारी

नर्क मेरी है जीत,विधाता
और तेरी है हारी...


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