Friday 30 August 2013

एक नाक़ाम शायर का ख़त

सुना है कि इश्क़ पर मेरी गज़लें आजकल तमाम सोलह की उमर वाली लड़कियों को गोया पागल बनाये दे रहीं हैं . उनकी गलियों में मेरी कलम किसी मुहलगे उश्शाक़ से कम नहीं है और मेरे मिसरों को उनकी चोटियों के लाल गुलाब, उनकी ही नज़र बचा के घड़ी-घड़ी चूम लिया करते हैं. 

ये भी सुनता हूं कि किसी मोहतर्मा ने कलाई पर हमारा कीमती क़लाम गुदवा रक्खा है और तबसे उन्हें बेवजह ही दोनों पलकों पर कलाई सेंकने की नई आदत सी लग गई है...

लेकिन मेरा हर शेर, हर एक क़लाम, हर दूसरी गज़ल और ये बड़बोली कलम आग में जाने कितनी बार , मेरे ही हांथों, कब के खाक़ कर दिये जाने चाहिए थे.....ताउम्र लिख के भी मैं तुझे केवल इतना नहीं जता पाया, कि मैं कोई शायर नहीं था ... 

सारी दुनिया को इश्क़ का फ़लसफ़ा हर बारीक ज़र्रे तक समझा सका, पर तुझे आज तक नहीं बता पाया कि मेरा हर एक शब्द तुम थीं.... दुनिया जिन गज़लों को दर्द की अद्भुत कल्पना समझ के दाद के ठीकरे फोड़ती रही वो तो दरअसल कोरी सच्चाइयां ही थीं , जो तू मेरा कान पकड़ कर लिखाती रही....
मैं ताउम्र एक नाकाम शायर ही रहूँगा क्योंकि अभी भी तुम मेरे क़लाम को मेरी कलम का कमाल मात्र समझ के अपनी गोल गोल आंखो से मुस्कुरा रही होंगी...और कल कहोगी, "निखिल ...!!! क्या खूब लिखा था....."

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